आगंतुक


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आगंतुक के लिए कोई पूरे पट नहीं खोलता
वह अधखुले पट से झाँकता
मुस्कुराता है।

आगंतुक एक शहर से दूसरे शहर
जान-पहचान का सुख तज कर आया है
इस शहर में भी,
अमलतास के पेड़, गलियाँ, छज्जे और शिवाले हैं
आगंतुक लेकिन इन्हें ढूँढ़ने यहाँ नहीं आया है।

क्या चाहिए?
अधखुले दरवाज़े के भीतर से कोई संकोच से पूछता है,
आगंतुक घबरा कर एक गिलास ठंडा पानी माँग लेता है।

पानी पीकर
आगंतुक लौट जाता है।

जबकि किसी ने नहीं कहा
भीतर आओ,
कब से प्रतीक्षा थी तुम्हारी,
और तुम आज आए हो,
अब मिले हो
बिछुड़ मत जाना।

मोनिका कुमार की अन्य रचनाएँ।

Agantuk‘ A poem by Monika Kumar

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