तहदरज़
बारिश की कितनी तहें होंगी पानी की कितनी तहें होंगी जो नाव तैरती चली जा रही है उस नाव की कितनी तहें होंगी तुम्हारे चलने से जो छाप पड़ी है
बारिश की कितनी तहें होंगी पानी की कितनी तहें होंगी जो नाव तैरती चली जा रही है उस नाव की कितनी तहें होंगी तुम्हारे चलने से जो छाप पड़ी है
काबुल को काबुली चना की ख़ुशबू की तरह मैं फैलते हुए देखना चाहता हूँ दुनिया में जो सफ़ेद और आकार में बड़ा होता है सफ़ेद भी कैसा, जिस तरह पिता
हलवाई की दुकान के बाहर गिरी रह गई थी चीनी जिसे उठाकर मैं रख आया था बरगद की जड़ों के पास चींटियों के लिए जिन्हें महामारी के इस वक़्त में
सच है, प्रेम कोई खिड़की न होकर एक पूरा दरिया होता है। दरिया भी कैसा – साफ़, चमचम, मीठे पानी वाला। ऐसे दरिया किनारे बैठकर जब हम इसके पानी में
जाड़ा जाने-जाने को है फ़रवरी के महीने में मेरा मन पतंग उड़ाने की ज़िद पर अड़ा है प्रेमी जोड़े का मानना है कि फ़रवरी तो एक-दूसरे को चूमने का महीना
जब रंगों की बात चलती है बहुत बुरे रंग में भी तुम ख़ास कुछ ढूंढ़ लेती हो तुमने बतलाया कि ऎसा हमारे प्रेम की वज़ह से होता है मैं तुम्हारी
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