अंततः यह संभव हुआ
दो जीवों की असमानता के बीच,
संबंध का संयोग जगा।
इस घर में मैं सामान से अधिक बोझ लेकर आई थी
फिर यहाँ खिलने लगा एकांत का अरण्य,
इस घर में रहती थीं छिपकलियाँ
जिन्हें मैंने असल में पहली बार देखा।
न्यूनतम सटीक देह,
चुस्त लेकिन शांत मुख।
छिपकलियाँ एकांत के पार्षद की तरह घर में रहतीं
और मैं व्याकुलता की बंदी की तरह।
निश्चित ही आसान नहीं था
छिपकलियों से प्रार्थना करना
इनके वरदान पर भरोसा करना
पर इससे कहीं मुश्किल काम मैं कर चुकी थी,
जैसे मनुष्य से करुणा की उम्मीद करना।
दूरियाँ बनी हुई हैं जस की तस
अतिक्रमण नहीं है अधिकारों का
छिपकलियाँ दीवारों पर हैं
और मैं अपने बिस्तर में
फिर भी एक दीवार अब टूट चुकी है।
एकांत के अरण्य में,
आत्मीय एक फूल खिल गया है।
‘Ekaant Ke Arany Mein‘ A Hindi poem by Monika Kumar
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