गर्ल्स स्कूल की लड़कियाँ


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एक साढ़े आठ फ़ीट ऊंची बाउंड्री के भीतर जवान होता है पूरा आकाश
ग्यारह से पांच तक अनगिन चिड़ियाँ चह चह चहकती हैं इसके कोने कोने में
प्रौढ़ धरती उन घण्टों में बन जाती है एक ग्यारहवीं में पढ़ती चंचल किशोरी
तड़की दीवारें अपनी दरारों से छिपकर देखती हैं एक जीवन उत्सव
इधर से गुज़रता बसंत ठिठकता है दो घड़ी और इन्ही चिड़ियों के नाम लिख देता है अपने सारे टेसू

क्लास की खिड़की के बाहर गुज़रती साइकल की टिन टिन से दिल के तार ट्यून करतीं
शर्ट की उधड़ी जेबों में बेर और इमली भरती
नीली स्कर्ट के पीछे उग आये अल्हड लाल चाँद को किताब से ढाँकतीं
सेफ्टी पिन्स को आड़े वक्त के औज़ार की तरह कमीज के भीतर एहतियात से छुपातीं
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नोटबुक के पिछले पन्नों पर अपने नाम के पहले अक्षर के साथ एक दूसरा अजनबी अक्षर लिख
पके सेब सी मुस्कुरातीं
बॉयज स्कूल के सामने गुज़रते हुए
एक झलक ‘अपने वाले’ की पाने के लिए दोनों मुट्ठी कस के भींच दुआ मांगतीं
नाभि के नीचे घाटी में पहली बार चक्कर काटती एक मछली की प्यास को समझने का जतन करतीं
दिल के तड़ाक से टूटने पर सहेली के काँधे पर भुरभुरी मिट्टी सी ढहतीं
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भरे बाज़ार में पहली बार छाती पर सरसराये नाग को याद कर रात भर सिहरतीं
उस अधेड़ मास्टर के लंपट स्पर्शों पर सुलग सुलग जातीं
अपनी ढीठ आँखों से बगावत के मायने समझातीं
नारों और हड़तालों का ककहरा सीखतीं
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बरसों बाद अपने बच्चों के साथ उस स्कूल के बाहर से गुज़रते हुए कार धीमी करतीं
हसरतों से अपने दीवाने दौर को ताकतीं
अपनी किशोर स्कूलमेट्स के झुण्ड को देख अनार दानों सी हँस पड़तीं और फिर
माँ की इस निराली अदा पर चकित बेटी के सर पर चपत लगा
कार झटके से बढ़ा देतीं
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अंज़ाम ऐ गुलिस्ताँ क्या होगा तुम जहाँ भी हो

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