कह देने की ये कौन सी तड़प है ?
क्यूँ
केवल कह देने भर से मन नहीं भरता?
क्यूँ ज़रूरी है इतना भरोसा
कि सुना जा रहा है ?
न सिर्फ़ सुना जा रहा बल्कि,
हर्फ़-हर्फ़ महसूस भी किया जा रहा है ?
क्या किसी भाषा में,
सब कुछ कहा जा सकता है ?
सब कुछ !
एक-एक बात,
एक-एक अहसास !
भरोसे को
रेगिस्तान में पानी की तरह
खोजती इस दुनिया में,
क्यूँ यह कसक
कि सुने जाने की प्रतिक्रिया भी हो ?
क्यूँ यह बेचैनी
कि हर चीख़ रूह को भेद ही दे ?
सुन लिया जाना भरम है!
सच तो ये है
कि कहने की ज़रूरत ही न होती,
अगर सुना जा रहा होता पहले से ही !
(बनती-बिगड़ती बातें, ख़ुद से)
#नीहसो