मुझे तो किसी ने भी नहीं बताया कि
जीने की राह
गेहूं के खेत में से होकर जाती है
पर जैसे माँ का दूध पीना मैंने
अपने आप सीख लिया
वैसे ही एक दिन
मैं घुटनियों चलती
गेहूं के खेत में जा पहुंची
गेहूं के साथ-साथ चने भी उगे हुए थे
मेरी माँ ने
हरे-हरे चने गर्म राख में भूनकर
मुझे खाने को दिए
मैंने मुंह में चुभला कर
हंसते-हंसते फेंक दिए
अभी मेरे दांत भी नहीं आए थे
भुने हुए चनों से मेरा सारा मुंह
काला हो गया
काली लार टपकने लगी
माँ ने तो मुझे यह नहीं बताया था
कि जब भी दो रोटियों की आशा में
कोई आगे बढ़ता है
उसका मुंह ज़रूर काला होता है!
‘Kala Munh’ A Hindi Poem by Padma Sachdev