कविता का शीर्षक आग में जल गया है – ओम आर्य


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तब घरों में
आग जलाने के साधन
बहुत कम हुआ करते थे।

दियासलाई भी बहुत कम घरों में हुआ करती थी।
और वह भी हमेशा नहीं।

हम गांव में
पड़ोस के घरों में
आग मांगने जाया करते थे
ताकि सांझ की रोशनी जलाई जा सके
चूल्हे जलाए जा सके
रोटी पकाई जा सके।

बारिश के दिनों में कई बार
मां कितना परेशान हो जाया करती थी
जब लकड़ियाँ सीली हो जाया करती थी
और आग भी कई घरों में घूमने के बाद
किसी एक घर से मिल पाती थी।

अगली जरूरत के लिए
आग को संभाल कर रखना होता था।
पर मां अक्सर सारा आग बांट दिया करती थी
उसका मानना था
कि आग को बचाए रखने के लिए उसे
बांटना जरूरी होता है
और इसलिए उसे आखरी बचे आग को भी
बांटने में कोई परेशानी नहीं थी।

पाठ्यक्रम में तब
पुरा पाषाण काल में हुए
आग के आविष्कार के बारे में पढ़ना
कितना रोमांचकारी हुआ करता था
और यह सोचना
कि पत्थरों को रगड़ कर आग पैदा करना
कितना मुश्किल होता रहा होगा तब

आज जब आग जलाने के बहुतेरे हैं साधन
और हर तरफ लगाई जा रही है आग
मैं सोचता हूं कि
आग मांगते-बांटते, बचाते-जलाते
यह हम आग लगाने तक कैसे पहुंच गए

क्या पुरा पाषाण काल के लोग
कभी सोच पाए होंगे
अपने आग के आविष्कार के
इस तरह के इस्तेमाल के बारे में
क्या मां जानती रही होगी कि
जो आग वह बचा रही है
वह किसी दिन
किसी का घर जला देगी

कल टीवी पर मां रोती हुई कह रही थी
कि आग में उसका बेटा जल गया है
और बिटिया झुलस गई है
और यह वह आग नहीं जो उसने बचाई थी।

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