कविता

दो औरतें

1. दो औरतें जब निकलती हैं अकेले निकाल फेंकती हैं अपने भीतर बसी दुनिया उछाल देती हैं हवा में उम्र का गुब्बारा जिम्मेदारियों में दबे कंधे उचकने लगते हैं वैसे

अछूत शरीर

संक्षिप्त जुड़ाव की अधिकता⁣ शरीर में अन्दर से⁣ ख़ालीपन ला देता है,⁣ ⁣ महसूस करने की क्षमता⁣ अंतरङ्गता भूल जाती है,⁣ हमेशा स्पर्श की खोज में ⁣ शरीर भ्रमित रहता

तुम ठीक हो ना

याद है तुम्हें जब उस ‌दिन तुम नहीं थे मेरे पास बैठे आती शाम में धीरे से बहती हवा के साथ। क्या… कह रहा था तब मैं, हाँ याद आया

बीते-बिताए दिन

बीत रहे होते हैं जब दिन जो बीते हुए याद आएँगे तब साथ-साथ बीत रहे होते हैं हम उनके बीतने की सम्पूर्ण यथार्थता से अपरिचित अच्छे दिन याद आते हैं

विरासत

जो तुमने अपने लिए किया तुम्हारे साथ चला जाएगा.. जो तुमने दूसरों के लिए किया वही विरासत है वही याद किया जाएगा! Virasat by Mehnaz Mansoori   mehnaz-mansoori

प्रेम

प्रेम युद्ध नहीं मानता प्रेम दुःख भी नहीं जानता प्रेम को भाषा कहने वाले लोग अभी सम्पूर्ण रूप से सचेत है प्रेम आधिकारिक रूप से हमारी आत्मा की संतुष्टि है

मेरा गांव

चलते चलते थक जाता है पाँव चलते चलते खत्म हो जाती है राह चलते चलते आसान हो जाता है गाँव चलते चलते उड़ने लगते हैं पखेरू अचानक से फुर्रर्र फुर्र

प्रतिस्पर्धा

अंतिम प्रहर का इंतजार ना करना पड़े, इसलिए प्रत्येक प्रहर को अंत में परिवर्तित करने का संज्ञान लेना ही पड़ता है; मर्म की बाधा जीवन की एक मात्र ऐसी बाधा

निर्वाण

हर कोई निर्वाण का पथिक होना चाहता है, परिवर्तित भावनाओं के अनुरूप व्यवस्थाएँ भी करता है, स्वयं को दया एवं मानवता की भावना से, अनुप्राणित होते देखता है, और पृरोहित

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