सुबह – सुधीर शर्मा
बहुत सवेरे आज उठा तो देखा मैंने आँखें मलते मलते सूरज जाग रहा है। लिंक रोड पर बीत चुके कुछ तनहा बूढ़े कैनवास के शूज़ कसाए अपनी अपनी लाठी के
बहुत सवेरे आज उठा तो देखा मैंने आँखें मलते मलते सूरज जाग रहा है। लिंक रोड पर बीत चुके कुछ तनहा बूढ़े कैनवास के शूज़ कसाए अपनी अपनी लाठी के
सुबह टीकम की दुकाँ से जाकर इक ज़पाटा पतंग खरीदी थी रगड़-रगड़ के कांच का रोगन, खूब मांझे को फिर पकाया था। झट से एक पल में ही सूरज को
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है आज की रात न फ़ुट-पाथ पे नींद आएगी सब उठो, मैं भी उठूँ तुम भी उठो, तुम भी उठो कोई खिड़की इसी
वो जो एक मुल्क़ है ना बर्फ की पहाडियों से आगे कहीं लोग ईरान कहते हैं जिसको सुना बेपर्दगी हुई है वहाँ ‘सबा, इक बीस साला लड़की ने हिजाब उतार
मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी मंदिर राम का निकला लेकिन मेरा लावारिस दिल अब जिस की जंबील में कोई ख्वाब कोई ताबीर नहीं है मुस्तकबिल की रोशन रोशन एक भी
ये क़िस्सा है मेरे बचपन का, जो मैं मन में दबाये बैठा हूँ .. कुछ यादों का, जो ज़हन में आज भी सन्नाटे की तरह घूम रही है, कुछ आँसुओं
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