नज़्म

सुबह – सुधीर शर्मा

बहुत सवेरे आज उठा तो देखा मैंने आँखें मलते मलते सूरज जाग रहा है। लिंक रोड पर बीत चुके कुछ तनहा बूढ़े कैनवास के शूज़ कसाए अपनी अपनी लाठी के

पतंग

सुबह टीकम की दुकाँ से जाकर इक ज़पाटा पतंग खरीदी थी रगड़-रगड़ के कांच का रोगन, खूब मांझे को फिर पकाया था। झट से एक पल में ही सूरज को

हिजाब

वो जो एक मुल्क़ है ना बर्फ की पहाडियों से आगे कहीं लोग ईरान कहते हैं जिसको सुना बेपर्दगी हुई है वहाँ ‘सबा, इक बीस साला लड़की ने हिजाब उतार

लेकिन मेरा लावारिस दिल

मस्जिद तो अल्लाह की ठहरी मंदिर राम का निकला लेकिन मेरा लावारिस दिल अब जिस की जंबील में कोई ख्वाब कोई ताबीर नहीं है मुस्तकबिल की रोशन रोशन एक भी

ये क़िस्सा है मेरे बचपन का

ये क़िस्सा है मेरे बचपन का, जो मैं मन में दबाये बैठा हूँ .. कुछ यादों का, जो ज़हन में आज भी सन्नाटे की तरह घूम रही है, कुछ आँसुओं

instagram: