कि रोने पर सिर्फ स्त्रियों का अधिकार नहीं – श्रुति कुशवाहा


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जितना ज़रूरी धरती के लिये
जितना ज़रूरी जीवन के लिये
उतना ही ज़रूरी है पानी
आँखों के लिये भी
आँख में पानी रहे तो साफ़ दिखती है दुनिया
पानीदार आँखें सहेजती है जीवन की नमी
लेकिन तुमपर तो सदियों से बेपानी रहने का श्राप है

आदमी रोया नहीं करते
ये कितना बड़ा षड्यंत्र है
कितनी कठोर सज़ा
कितना भारी बोझ
तुम्हें हमेशा बताया गया
नदी स्त्रीलिंग है
और इस बहाने बना दिया रेगिस्तान
बंजर आँखों के कारण बाँझ रहा मन
बाँझ मन ने तुम्हें पुरुष के सिवा कुछ न होने दिया

क्या ही अच्छा होता कि रो लेते एक बार
देखते की नदी होना पुरुष होने के विरूध्द नहीं
रोने से पौरुष नहीं खोता
रोना निर्बल होना नहीं होता
रो लेने से सब ख़ाली हो जाता है
भीतर भरे हो तभी तो
बाहर अधिक जगह घेरते हो
तभी तुमने स्त्री को कम जगह दी
रो लेते तो
भीतर तुम्हारे लिये थोड़ी जगह हो जाती
बाहर स्त्री के लिये

ओ पुरुष
मैं तुमसे बेहद प्रेम करती हूँ
इसलिये चाहती हूँ एक बार रो लो
रो लो ताक़ि ज़िंदा होने पर यक़ीन बना रहे
रो लो कि रोने पर सिर्फ स्त्रियों का अधिकार नहीं

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