मैं विवश हूँ, साहिलों ने
कस रखे हैं पाँव मेरे,
यों उजाड़े जा चुके हैं,
नीड़ मेरे, ठाँव मेरे
एक जंगल उग गया है
आज मन की बस्तियों में,
इन कंटीली झाड़ियों में
खो गए हैं गाँव मेरे
पुनः चुनकर घास तिनके व्यर्थ है आश्रय बनाना
अब जमी को ओढ़ नभ को छत बनाना चाहता हूँ
हृदय मंथन से निकलता
जा रहा है यों हलाहल,
दग्ध होते जा रहे हैं स्वप्न
लोकों के विहग -दल
और वे उत्साह जिनके
हाथ में अमृत कलश था
वे खिसकते जा रहे हैं
देव-दल की ओर पल पल
कुछ नहीं है हाथ मेरे, बस कुटिल अमरत्व झूठा,
मृत्यु की संतृप्ति हित इसको लुटाना चाहता हूँ
हर घड़ी बस यह निराशा
हर दिवस की यह कहानी,
घाव नूतन दे रहीं हैं
ठोकरें वर्षों पुरानी
कोशिशों के शब्द अपने
शिल्प से बिछड़े हुए हैं
बस हताशायें बची हैं
शोक-गीतों की निशानी
अंततः इस जिंदगी के रिक्त पन्नों की सतह पर
स्वांस की स्याही गिराकर भाग जाना चाहता हूँ।