हर कोई निर्वाण का पथिक होना चाहता है,
परिवर्तित भावनाओं के अनुरूप व्यवस्थाएँ भी करता है,
स्वयं को दया एवं मानवता की भावना से,
अनुप्राणित होते देखता है,
और पृरोहित परिकल्पनाओं से प्रस्फुटित,
दिव्यता में मुग्ध होकर,
सब भूल जाता है;
परन्तु मनुष्य काल के नदी तट पर स्थित,
उस वृक्ष के समान है,
जिसकी छाया मात्र ही,
दूसरे तट का अनुभव कर सकती है,
उसका स्नेह प्राप्त नहीं कर सकती;
और जिसकी जड़ें वृक्ष तो हो सकती हैं,
परन्तु अमृतमयी स्वफलों का आस्वादन कर,
अपनी तृप्तता का संवेदन कर सकने में,
आजीवन अशक्त होती हैं;
काल की नदी से आने वाली लहरें,
और उनके संग बहने वाली प्राण वायु,
पत्तियों, टहनियों को स्पर्श कर,
जड़ों को अभिस्नेहित कर,
वयोवृद्ध छालों को आलिंगन दे,
जो कुछ उनमें नियुक्त कर जाती हैं,
बस वही होती है “निर्वाण की अनुभूति”
जिन्हें प्राप्त कर पत्तियाँ, टहनियों का मोह त्याग देती हैं,
और टहनियाँ वृक्ष का ठूठ हो जाती हैं;
मनुष्य को भी राज-पाट त्याग,
प्रवज्या ग्रहण कर,
निर्वाण का पथिक होने की आवश्यकता नहीं,
उन्हें मात्र पत्तियों, टहनियों व पुष्पों की भाँति,
जीवनरूपी तनों और जड़ों का पथिक बने रहना है;
एक न एक दिन हवाएँ चलेंगी,
लहरें बहेंगी,
और निर्वाण का,
स्वालिंगन होगा।
‘Nirvaan’ Hindi Poem by Vijay Bagchi