रेख़्ता

कविताएँ जब अचानक मर जाती हैं

कविताएँ जब अचानक मर जाती हैं जैसे धकेल दिया गया हो किसी ऊँची पहाड़ी से या कर दिया गया हो उसे छिन्न भिन्न आनन फानन में सारे सबूत मिटा दिए

पृथ्वी की उथल पुथल

प्रतीत होता है मैंने निगल ली है एक समूची पृथ्वी जिसके झरनें बह रहे हैं मेरी रक्तकणिकाओं में जिसके पेड़ उग रहे हैं असंख्य भाव रूपी, जिसके पुष्प खिल रहे

मुर्दा भीड़ का संताप

रोशनी उतर आयी है पेड़ों के ऊपर से नीचे घास पर मेरे तलवों से मेरे ख़ून रिसते होंठों पर, मैं महसूस कर रही हूँ सैकड़ों कीड़े घिसट रहे हैं मेरी

बीमार समय में

एक बूढ़ा सियार हुआँ हुआँ का शोर मचाता है पीछे से लाखों सियार जयकार लगाते हैं छद्म वेश में जो सियारों में शामिल नहीं हैं उनके लिए हस्ताक्षरित सियारी खाल

शब्द

मेरे भीतर उगती हैं नागफ़नी विद्रोह की जैसे उग आती हैं दूब मीलों तक मैं तलवार नहीं रखती न ही कोई बंदूक की गोली मैं रखती हूँ शब्द जो धंसे

प्रेम

मेरी आत्मा के माथे पर लंगर डाले पड़े हैं सदियों से तुम्हारे वो चुम्बन जो पूर्ण होने से पहले खींच डाले गए विरह के क्रूर जाल में फंसाकर; मेरा प्रेम

जितना भी तुमने छुआ है मुझे !

मैं रोज जी लिया करूंगा अपनी हथेली पे स्पर्श तेरी हथेली का हथेली पे घटित हुआ वो स्पर्श रोज घटा करेगा हथेली पे तुम्हारी वो छुअन कभी नर्म धुप की

दबे हुए फ़ूल मोहब्बत के

तुम्हें अपने अतीत से नफ़रत है क्या, कभी कोई याद संजो कर रखी है? पूछो, तो कहते हो .. जो हो ना सका मुकम्मल, उसे सहेजने से क्या फ़ायदा! जैसे

रिक्त स्थान

एक पुरुष ने लिखा दुख और यह दुनिया भर के वंचितों की आवाज़ बन गया एक स्त्री ने लिखा दुःख यह उसका दिया एक उलाहना था एक पुरुष लिखता है

कोई मेरे साथ चले

मैंने कब कहा कोई मेरे साथ चले चाहा जरुर! अक्सर दरख्तों के लिये जूते सिलवा लाया और उनके पास खडा रहा वे अपनी हरीयाली अपने फूल फूल पर इतराते अपनी

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