ये क़िस्सा है मेरे बचपन का


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ये क़िस्सा है मेरे बचपन का, जो मैं मन में दबाये बैठा हूँ ..
कुछ यादों का, जो ज़हन में आज भी सन्नाटे की तरह घूम रही है,
कुछ आँसुओं का, जो इन आँखों में क़ब्ज़ा किए हुए हैं ।।

बात उन दिनो की है, जब मुल्क के सीने में ख़ंजर घोंपकर,
अपनो से ही अपनो को जुदा कर रहा था कोई ..
कोई काट रहा था गला .. कोई लूट रहा था आबरू ..
हर तरफ़ ख़ून ही ख़ून था फैला ..
इन्ही यादों ने नफ़रत की एक दीवार खड़ी की थी,
आज नफ़रत की उठी वो दीवार ढहाना चाहता हूँ मैं ..
मुझे मीठे पकवानों की ख़ुशबू आती है सरहद पार से

मेरे कुछ अपने मुझे दावत पर बुला रहे हैं,
ज़हन में आज भी कुछ क़िस्से ताज़ा है लाहौर के ..

इच्छरा बाज़ार में ही दुकान थी मेरे बाबा की,
बग़ल में ही मुश्ताक़ चाचा भी अपनी तनूर संभालते थे
सब कुछ अच्छा चल रहा था, ख़ुश थे हम,
पर उस रात जब आग लगी ..
बाबा बाहर ही टहल रहे थे,
कुछ लोग आए और उन्हें अपने साथ लेकर चले गए।
माँ ने चुपचाप मुझे संदूक के पीछे छिपा दिया,
सिसकियाँ लेती हुई वो अपने दुपट्टे से अपनी चीख़ें दबा रही थी।
उस रात से मैंने बाबा को नहीं देखा,
ना ही मुझे उनकी शक़्ल याद है ..
याद है तो बस,
बस वो ख़ून से सना कुर्ता जो लाशों के बीच लाहौरी गेट के पास पड़ा था,
याद है तो बस वो भीड़ जो ठोकर खाती रेलगाड़ी के पीछे भाग रही थी,
याद है तो बस मुश्ताक़ चाचा के वो आख़िरी लफ़्ज़ बेटा ये हालातों का क़सूर है, ख़ुदा ख़ैर बख़्शेगा,
ना जाने वो कैसा अबयज़ सवेरा था जो लाखों जिंदगियों में सिर्फ़ अँधेरा लेकर आया ..
तब से आज तक अल्फ़ाज़ नहीं फूटें है मेरी माँ की ज़ुबाँ से,
ना जाने उसकी चीख़ों के बीच उसकी आवाज़ कहाँ ग़ुम हो गई ..

आज भी सिर्फ़ कँटीले तार ही नज़र आते हैं उस तरफ़ देखूँ तो,
हाथ में हथियार लिए कुछ सरकारी नौकर खड़े हैं मेरे और लाहौर के बीच ..
आज मैं मिलना चाहता हूँ उन गलियों से दोबारा,
मैं घूमना चाहता हूँ लाहौर ..
वापस पाना चाहता हूँ वो बीते लम्हें,
और वो पुराना दौर .. मेरा लाहौर ।।

– प्रतीक सिंह चौहान

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