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मुझे जुगनुओं के देश जाना है
मेरी कहानियों में स्त्री पात्र के भीतर छटपटाहट है, बेचैनी है। बोसीदा रीति रवाजों को मानने से इनकार करता उनका मन समाज के बनाये बन्धनों में जकड़ा हुआ ज़रूर है मगर वो किसी हाल में उम्मीद नहीं छोड़तीं। उनकी आँखों में उम्मीद के दिए जल रहे हैं, एक ख़ाब मतवातिर उनके ज़ेहन में चलता रहता है जो उन्हें यक़ीन दिलाता है कि आज नहीं तो कल हालात सुधरेंगे। कभी तो वो रात आएगी जब मुठ्ठियों में बंद जुगनू आज़ाद होंगे और अँधेरी फ़ज़ा फिर से रोशन हो उठेगी।
– सबाहत आफ़रीन
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Publisher: Rujhaan Publications
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