ग़ज़ल

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ एक जंगल है तेरी आँखों में मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ तू किसी रेल-सी गुज़रती है मैं किसी पुल-सा थरथराता

हमारे पास एक घर है

हमें ना जीत की चाहत, हमें ना हार का डर है। हमारे पास एक घर था, हमारे पास एक घर है।। यही मासूम रुख़ देखो, यही इबलीस, दरिंदा है। कभी

Lockdown

छोड़नी उनको पड़ीं ये बस्तियाँ, दूर मंज़िल और ना थीं रोटियाँ भूखे बच्चों को सुलाये किस तरह, माँ सुनाती सिर्फ़ उनको लोरियाँ चुभ रहा था ये नज़ारा इस-क़दर, बिल्डरों को

उस के होंटों पर सुर महका करते हैं

उस के होंटों पर सुर महका करते हैं हम अब ख़ुश्बू से तर सोया करते हैं रौशन रहते हैं ग़म सत्ह पे अश्कों की ये पत्थर पानी पर तैरा करते

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो आँखों में नमी हँसी लबों पर क्या हाल है क्या दिखा रहे हो बन जाएँगे ज़हर

तिरंगा

इस मिट्टी से ही हूँ मैं है वजूद मेरा मातृभूमि के चरण में है सुजूद मेरा हर साँस में समाई है वतन परस्ती अब क्यूँ माँगते हो तुम सबूत मेरा

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