छोड़नी उनको पड़ीं ये बस्तियाँ,
दूर मंज़िल और ना थीं रोटियाँ
दूर मंज़िल और ना थीं रोटियाँ
भूखे बच्चों को सुलाये किस तरह,
माँ सुनाती सिर्फ़ उनको लोरियाँ
चुभ रहा था ये नज़ारा इस-क़दर,
बिल्डरों को तोड़नी थी बस्तियाँ
जब भी उठती हैं मरोड़े पेट में,
मौत से घबरा के खा ली पत्तियाँ
हाथ पे आकर हथौड़ा जब गिरा,
बैठ कर फिर गिन रहा था उँगलियाँ
जब लहू का तेल भी डाला गया,
और रौशन हो गयीं थी भट्टियाँ
मुफ़्लिसी पे शेर ही कहते रहे,
दाद में मिलती रहीं बस तालियाँ!
सो गए थे शाम को थक हार के,
भोर लथपथ हो गयीं थी पटरियाँ
मौत को स्क्रोल करते जा रहे,
फेसबुक पे रो रहीं थी हस्तियाँ,
है फ़िज़ा में अब ज़हर ऐसा घुला
जान की भी लग रहीं थी बोलियाँ
मौत से बेफ़िक्र चौकीदार था
कर रहा था रेलियों पर रेलियाँ।
‘Lockdown’ A Ghazal By Ajay Rahul