दिल्ली

रेलगाड़ी पहुँच चुकी है गंतव्य पर।
अप्रत्याशित ट्रैजेडी के साथ
खत्म हो चुका है उपन्यास

बहुत सारे अपरिचित चेहरे
बहुत सारे शोरों में एक शोर
एक बहुप्रतिक्षित कदमताल करता
वह साथ–साथ चल रहा है
विलीन है उसकी प्रतिच्छाया,
मेरी ही प्रतिच्छाया में।

इतनी सारी समानताओं के बावजूद
फिर भी एक–दूसरे के बीच
इतनी जगह शेष है कि
समूची दुनिया हमारे बीच से
निकल सकती है सकुशल
बिना किसी चिल्ल–पों के।

शहरनुमा इन बड़े धब्बों के बीच
एक छोटे धब्बे सा वह प्रतीत हो रहा है
और लग रहा है गोया
किताब से निकलकर
उपन्यास का नायक
स्टेशन पर उतर आया है।

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