
अठहत्तर दिन
अठहत्तर दिन तुम्हारे दिल, दिमाग़ और जुबान से नहीं फूटते हिंसा के प्रतिरोध में स्वर क्रोध और शर्मिंदगी ने तुम्हारी हड्डियों को कहीं खोखला तो नहीं कर दिया? काफ़ी होते
अठहत्तर दिन तुम्हारे दिल, दिमाग़ और जुबान से नहीं फूटते हिंसा के प्रतिरोध में स्वर क्रोध और शर्मिंदगी ने तुम्हारी हड्डियों को कहीं खोखला तो नहीं कर दिया? काफ़ी होते
गाँव लौटना एक किस्म का बुखार है जो बदलते मौसम के साथ आदतन जीवन भर चढ़ता-उतारता रहता है हमारे पुरखे आए थे यहाँ बसने दक्खिन से जैसे हमें पलायन करने
जो पुष्प अपनी डाली पर ही सूखते हैं, वो सिर्फ एक जीवन नहीं जीते, वो जीते हैं कई जीवन एक साथ, और उनसे अनुबद्ध होती हैं, स्मृतियाँ कई पुष्पों की,
किसी के प्रेम में पड़ जाने की सही-सही वजह नहीं बता पातीं कभी भी स्त्रियाँ, जबकि पुरुषों के पास होते हैं एक सौ एक कारण स्त्रियों के पास अपने प्रेम
आज के दिन कितना कुछ किया जा सकता था। कविता की किताब हाथ में लिए धूप तापते हुए शीत ऋतु के सुख को अपनी देह में नृत्य करने दिया जा
जैसे कई दिनों तक खिली घनी धूप के बाद अचानक होने लगती है तेज बारिश वैसे ही कभी चले आना तुम बिना बताए अचानक दरवाजे पर खड़े होकर मुस्कुराते हुए
1. दो औरतें जब निकलती हैं अकेले निकाल फेंकती हैं अपने भीतर बसी दुनिया उछाल देती हैं हवा में उम्र का गुब्बारा जिम्मेदारियों में दबे कंधे उचकने लगते हैं वैसे
संक्षिप्त जुड़ाव की अधिकता शरीर में अन्दर से ख़ालीपन ला देता है, महसूस करने की क्षमता अंतरङ्गता भूल जाती है, हमेशा स्पर्श की खोज में शरीर भ्रमित रहता
याद है तुम्हें जब उस दिन तुम नहीं थे मेरे पास बैठे आती शाम में धीरे से बहती हवा के साथ। क्या… कह रहा था तब मैं, हाँ याद आया
अंतिम प्रहर का इंतजार ना करना पड़े, इसलिए प्रत्येक प्रहर को अंत में परिवर्तित करने का संज्ञान लेना ही पड़ता है; मर्म की बाधा जीवन की एक मात्र ऐसी बाधा
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