विरक्ति

आज के दिन
कितना कुछ किया जा सकता था।

कविता की किताब हाथ में लिए
धूप तापते हुए शीत ऋतु के सुख को
अपनी देह में नृत्य करने दिया जा सकता था।

तुम्हें याद करके
सारे दिन को उदास बनाया जा सकता था।

नयी प्रेमिका से
दिन भर फोन पर बातें की जा सकतीं थीं।

मरे हुओं को याद करके
दिन भर रोया जा सकता था।

छोड़े हुओं को याद करके
सारा दिन पश्चाताप किया जा सकता था।

आज
अपने सपनों के पीछे
भागा जा सकता था।

आज
अपने जीवन और विषाद के विषय में
माँ को सबकुछ बताया जा सकता था।

आज!
हाँ आज ही
असंभव, संभव में बदल सकता था।

तुम्हें एक आख़िरी बार
मुझसे हो सकता था प्यार।

जैसे मजदूर
दिन ढले थकन लिए
लौट आते हैं घर।

मैं लौट सकता था
तुम्हारे द्वार।

कुछ नहीं तो
आज दिनभर अकेले तो रहा ही जा सकता था।

आज
संसार की हर वस्तु
पर मोहित हुआ जा सकता था।

आज
सबकुछ किया जा सकता था।

आज
सबकुछ हो सकता था।

आज
संसार से विरक्त हो गया।

‘Virakti’ A Hindi Poem by Sudhir Dongre

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