गाँव : पुनरावृत्ति की पुनरावृत्ति

गाँव लौटना एक किस्म का बुखार है
जो बदलते मौसम के साथ आदतन
जीवन भर चढ़ता-उतारता रहता है

हमारे पुरखे आए थे यहाँ बसने दक्खिन से
जैसे हमें पलायन करने की ज्यादा जानकारियाँ हैं
वैसे ही उन्हें जगहों को अपना कर
रहने की अधिक विधियाँ ज्ञात थीं

यह पुरखों का वरदान ही था
जो पत्तों में गौरैया के गुजरने की आवाज़ भर से
पेड़ों को उनके नाम से पुकार लिया करता था

मगर स्थितियाँ अब पहले जैसी नहीं रहीं
वे रह गईं मात्र ‘खोई चीज़ों का शोक’* बन कर
जब दुःख के दिन बदल जाएँ बरसों में
तो शुभकामनाएँ और आशीर्वाद मर जाते हैं।
मुझे भी उन लोगों पर कभी नहीं हुआ यकीन
जो नकली और सतही मुस्कुराहट लिए
शुभचिंतक होने का दावा करते रहे

महानगर में खिड़की से दिखता एक वायुयान
विशाल पक्षी की तरह डैनों को फैलाए
रोज़ गुजरता था अपने तय समय पर
गाँव में कुछ भी नहीं गुजरता तय समय पर
यहाँ तक की समय भी नहीं!

उस रात उमस को चीरती हवा अपने चरमोत्कर्ष पर थी
दबोच रहा था गहरी नींद में कोई अपना ही
रुलाई फूट रही थी कातर स्वर में

जैसे सपने में अंतहीन गिरते चले जाना
किसी तरह का भ्रम था
और गिरते हुए की करुण पुकार,
मदद की भीख।
जैसे धूप का खिलना
दिखा रहा था उसकी हत्या में
संलिप्त क़ातिल की परछाईं
और उसका पकड़े जाना
महज़ किसी मुहावरे की सांत्वना भर था।

याददाश्त की सुराखों से कुछ रिसता है
जो कुछ अच्छा बीत गया,
वह याद नहीं आता
गाँव भोर के सपने जैसा था
जिसके सच होने की बात पर
संदेह नहीं पूर्णतः यकीन था।

यह एकाएक उठती कराह
सखुआ के जंगलों में उठने वाले
प्रसव गीत के मायने बदल रही है।
अपूर्ण हो सकता है सब कुछ
किंतु इसकी संपूर्णता में
जोड़ने हेतु शेष नहीं होगा स्थान ।

*खोई चीज़ों का शोक – सविता सिंह की एक कविता का शीर्षक।

“Gaon: Punravriti Ki Punravriti” A Hindi Poem by Piyush Tiwari

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