Author: पीयूष तिवारी

पीयूष तिवारी

दिल्ली

रेलगाड़ी पहुँच चुकी है गंतव्य पर। अप्रत्याशित ट्रैजेडी के साथ खत्म हो चुका है उपन्यास बहुत सारे अपरिचित चेहरे बहुत सारे शोरों में एक शोर एक बहुप्रतिक्षित कदमताल करता वह

अठहत्तर दिन

अठहत्तर दिन तुम्हारे दिल, दिमाग़ और जुबान से नहीं फूटते हिंसा के प्रतिरोध में स्वर क्रोध और शर्मिंदगी ने तुम्हारी हड्डियों को कहीं खोखला तो नहीं कर दिया? काफ़ी होते

गाँव : पुनरावृत्ति की पुनरावृत्ति

गाँव लौटना एक किस्म का बुखार है जो बदलते मौसम के साथ आदतन जीवन भर चढ़ता-उतारता रहता है हमारे पुरखे आए थे यहाँ बसने दक्खिन से जैसे हमें पलायन करने

दुर्दिनों का आत्मकथ्य

यातायात संबंधी नियमों में उलझे लोगों के पास नहीं होता तटस्थ रहने के नियम-कायदे समझने भर का समय जीवन के सबसे उदास दिनों में निर्विकल्प झेलनी है एकाकीपन की पीड़ा

केदार जी को स्मरण करते हुए

खेत में चुगते पक्षियों पर कभी मत फेंकना पत्थर नहीं तो भूखा मर जाएगा समूचा आदम जात व्याकुल भटकते निरुपाय को मत देना देहरी से धक्का नहीं तो रोएगा कुत्ता

जनवरी

इस महीने कमरे में पड़ती धूप पिछले महीने की धुँध से ही छन कर आती है और आते ही सबसे पहले पड़ती है पुआल की गोद में शान्त सोते हुए

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