नहीं फूटते हिंसा के प्रतिरोध में स्वर
क्रोध और शर्मिंदगी ने तुम्हारी हड्डियों को
कहीं खोखला तो नहीं कर दिया?
काफ़ी होते हैं अठहत्तर दिन
लोकतंत्र का सूचकांक मापने के लिए
अठहत्तर दिन गिरते आकाश के प्रतिबिंब में
धुंध और आततायी चेहरे एक हो जाते हैं
इन्हें न आती हुई एंबुलेंस दिखती है
न जाती हुई पागल भेड़िए सरीखे भीड़ की मशाल
बौद्धिक स्खलन के इस संक्रमण काल में
अगर वह तय करें धुँधलापन हटाने का पैमाना
तो जान जायेंगे ताबूत में पड़े शवों को
सबूत की ज़रूरत नहीं होती।
अठहत्तर दिन तुम उन कारणों को जन्म देते रहे
जिनकी आड़ में बलात्कार और आगजनी की
तयशुदा घटनाएँ घटती रहीं।
अब तो विकृत मुद्राओं से भरे चेहरे पर भी
संवेदनशीलता का आवरण
लगता है बेडौल भंगिमा जैसा
अठहत्तर दिन बाद सभ्यता का चेहरा करते हुए शर्मशार
एक वैधानिक कार्यवाही के रूप में
आदेश पारित किया है प्रधान सेवक ने
सूक्तियाँ बन गई हैं प्रार्थनाएँ
और जैसा की सर्वविदित है
प्रार्थनाओं को मर्सिये में तब्दील होने में
नहीं लगता समय।
उजाड़ और विस्थापन की इस अटूट प्रक्रिया में
वे जा रहे हैं अपने भारहीन पैरों से
कुचलते हुए भय और आशंका के अंधेरे को
जैसे अंधाधुंध कट रहे हों वृक्ष हर दिन
और पालने पर से गिरने के कारण
किसी शिशु की मृत्यु हो गई हो।
“Athatthar Din” A Hindi Poem by Piyush Tiwari