hindi poetry

अठहत्तर दिन

अठहत्तर दिन तुम्हारे दिल, दिमाग़ और जुबान से नहीं फूटते हिंसा के प्रतिरोध में स्वर क्रोध और शर्मिंदगी ने तुम्हारी हड्डियों को कहीं खोखला तो नहीं कर दिया? काफ़ी होते

गाँव : पुनरावृत्ति की पुनरावृत्ति

गाँव लौटना एक किस्म का बुखार है जो बदलते मौसम के साथ आदतन जीवन भर चढ़ता-उतारता रहता है हमारे पुरखे आए थे यहाँ बसने दक्खिन से जैसे हमें पलायन करने

बीते-बिताए दिन

बीत रहे होते हैं जब दिन जो बीते हुए याद आएँगे तब साथ-साथ बीत रहे होते हैं हम उनके बीतने की सम्पूर्ण यथार्थता से अपरिचित अच्छे दिन याद आते हैं

नहीं चाहता कुछ बेसमय

हर पतझड़ पेड़ के दिल मे कुछ आग बढ़ती रहती दर्द के हर मौसम में नसों से बहता है कुछ ज्यादा खून फिर भी नही चाहता कुछ बेसमय हो। अपने

विरह गीत

हे प्रिये!⁣ मैं उदासीनता के दुःख में हूँ⁣ मुझे विरह के अवसाद से⁣ बचा लो…⁣ ⁣ पंछियों के स्वर सङ्गीत नहीं लग रहे⁣ मौन तेरे काँटों से तेज दिल में

परिणय

तुम्हें तीन जोड़ों वाली चीज़े बहुत पसंद थी।⁣ जैसे तीन दोस्तों की यारी,⁣ जैसे तीन नदियों का संगम⁣ जो जल को पवित्र बना देती है।⁣ ⁣ पर शायद तुम भूल

प्रतीक्षा

उसकी पसीजी हथेली स्थिर है उसकी उंगलियां किसी बेआवाज़ धुन पर थिरक रही हैं उसका निचला होंठ दांतों के बीच नींद का स्वांग भर जागने को विकल लेटा हुआ है

अभ्यस्त हूँ

तुम्हारे नहा लेने के बाद, तुम्हारे भीगे तौलिये से अपना बदन पोंछना, तुम्हारा स्पर्श पा लेने जैसा है, ज़िंदगी के तमाम उतार-चढ़ावों के बीच ये मेरे रोज़ का एक हिस्सा

देवी

‘मगर चाची, लाल रंग ही क्यूं?’ आल्ता लगवाती हुई मधु ने पूछा। ‘लाल रंग शुभ होता है बिटिया। सुहाग की, खुशी‌ की निशानी। जैसे खून भी तो लाल होता है,

प्रेम की आवश्यकता

ज़िंदगी में प्रेम ज़रूर करना तुम। और करते रहना, कोशिश उसे पाने की। क्योंकि जैसे सत्य सब “शिव” हो जाएँगे अंत में, छोटी-मोटी पगडंडियाँ खुलेंगी राजमर्ग पर और नदियाँ सारी

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