दो औरतें

1.
दो औरतें जब निकलती हैं अकेले
निकाल फेंकती हैं अपने भीतर बसी दुनिया
उछाल देती हैं हवा में उम्र का गुब्बारा
जिम्मेदारियों में दबे कंधे उचकने लगते हैं
वैसे ही जैसे उछलता है बालमन
बेफिक्र अल्हड़ कदम नापना चाहते हैं
दहलीज से आगे बढ़ कर अपने हिस्से की जमीन
पंख लगाए उड़ती हैं खुले आसमान में
बंद पिंजड़ों से मुक्त चिड़ियों सी
हवा में हाथ पसार गहरी सांस भर
मुस्कुरा उठतीं हैं स्वप्न भरी आँखें
शीशी में वर्षों बंद पड़ी केवड़े सी हँसी
खुलते ही फ़ैल जाती है क्षितिज तक
चिल्लाते हुए बच्चे दौड़ पड़ते हैं उसी ओर
‘देखो इंद्रधनुष निकल आया’
घूरती नजरों से बेपरवाह
अपने आप में रमी
बस अपने साथ होतीं हैं
उस वक्त
दो औरतें..
2.
जब मिलती हैं दो औरतें
बस, रिक्शे, सब्जी मंडी, अस्पताल, हाट बाजार में
जी खोल करती हैं बातें
घुलने लगती है गहरी दबी वर्षों पुरानी गांठ
धधकता,उबलता लावा बाहर निकाल
मन को ठंडाती हैं वैसे ही
जैसे पानी के छींटों से शांत हो आता है
दूध का उफान
फल, सब्जी खरीदते अक्सर बता जाती हैं
अपनों की जीभ का स्वाद
बजाजे में ललचाती हुई इच्छाओं को दबा
खरीद लेती हैं साड़ी, कुर्ता– सलवार
सजा लेती हैं खुद का बदन
बाप, भाई, पति और बेटों के अनुसार
एक मुलाकात में ही जान जाती हैं वो
एक दूसरे के भीतर बसा उनका पूरा परिवार
और उसकी पसन्द ना पसन्द
जुदा होते समय
एक जैसी हो कर लौटती हैं
वो बिना नाम वाली
दो औरतें….
3.
ईर्ष्या नहीं करती
एक– दूसरे से
दो औरतें
वह तो बस मोहरें होती हैं
बिछाई गई बिसात की
जिसे बिछाता है खेलने वाला
अपनी चिरविजयी मानसिकता के साथ
शतरंज के खिलाड़ी की कुटिल शह पर नाचती हुई
बादशाह के बचाव में तैनात सेना सी
बस अनजाने में
एक दूसरे के सामने आ खड़ी होती हैं
दो औरतें…
4.
बातचीत के शुरुआती दौर में वह होती हैं
माँ– बेटी, हम उम्र बहनें
सखी– सहेली, ननद–भौजाई
सास– बहू, देवरानी– जेठानी
दादी– पोती, बुआ– भतीजी
गुरु–शिष्या
या रिश्तों में बंधा कोई और नाम
मगर धीरे– धीरे
हृदय की खुलती हुई गिरहों के
झरते भावों में डूबी हुई
अंततः बचती हैं शेष
दो औरतें…
5.
तुम कुछ भी न थे
सही सुना
कुछ भी न थे तुम
नंगी आँखों से कोई देख भी न सकता था तुम्हें
मगर महसूस कर सकती थी वह, तुम्हारा होना
जब दुनिया झुठलाती तब वह जोर देकर कहती
की तुम हो!
गर्भ में पालती रही ममता नौ माह तक
एक स्त्री के यकीन का मूर्त रूप हो तुम
इसके सिवा और कुछ भी नहीं
यह फौलादी शरीर, रौबदार आवाज , रुपया, पैसा,नाम
कुछ भी न था तुम्हारे पास
बिलांद भर की बेजान देह और सुबकती आवाज
दया के पात्र, लजलजाती हड्डियों का ढांचा मात्र थे तुम
माँ के लहू, अस्थि रस,दुलार और श्रम
का परिणाम है यह तुम्हारा अस्तित्व
तुम्हारे वामांग में बैठी हुई ये स्त्री
अग्नि की परिक्रमा से पूर्व
भला कितना जानती थी तुम्हें?
मगर भलीभांति जानती थी वह
तुम्हारे ख़्वाब और खुशियां
सजाना जानती थी
तुम्हारा घर, मन, बिस्तर और परिवार
बन जाना चाहती थी वह
तुम्हारी लक्ष्मी, रति, अन्नपूर्णा और सावित्री
होने को तो क्या नहीं हो सकती थी वह
मगर उसने स्वीकारा बस तुम्हारी होना
यूँ तो इतिहास भी रच सकती थी वह
किन्तु उसने तुम्हारी संतान को रचा
जीवन साथी से न जाने कब बन गई जीवन सारथी
हे पुरुष!
तुम्हारे इस कंगूरों, बेल–बूटों, ऊंची मीनारों, शिखर कलश से
सुसज्जित जीवन भवन की शिल्पी हैं ये
दो औरतें….
6.
दूर तक फैला दुःख का अथाह सागर
एक दूसरे की छोटी–बड़ी खुशियाँ
बेरंग जीवन के स्याह– सफेद धब्बे
मन की व्यथा
तन की पीड़ा
रसोई के पकवान
निंदा रस का स्वाद
अपनों के ख्वाब
मन्नत और उपवास
जेवर, साड़ी, श्रृंगार
पति, बेटों का प्यार
आँखों से बहता पीहर
कम खर्च में घर चलाने का हुनर
कल्पनाओं का सुखद संसार
घर परिवार में अपना स्थान
होंठों की मुस्कान
सब कुछ साँझा कर लेती हैं
जब मिल बैठती हैं
दो औरतें….
‘Do Auratein’ A Hindi Poem by Chitra Panwar

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