उस के होंटों पर सुर महका करते हैं

उस के होंटों पर सुर महका करते हैं
हम अब ख़ुश्बू से तर सोया करते हैं

रौशन रहते हैं ग़म सत्ह पे अश्कों की
ये पत्थर पानी पर तैरा करते हैं

दिन भर मैं इन की निगरानी करता हूँ
शब भर मेरे सपने जागा करते हैं

आँखें धोते हैं सोने के पानी से
जागते ही जो तुम को देखा करते हैं

वो जो झोंके जैसा आता जाता है
हम जो हवा को छू कर बिखरा करते हैं

पंद्रह दिन का हो कर मरने लगता है
क्यूँ हम चाँद को पाला पोसा करते हैं

हम को आँसू ही मिलते हैं सीप में भी
वो अश्कों में मोती रोया करते हैं

बोसा लेने में क्यूँ कट जाते हैं होंट
हम माँझे दाँतों से काटा करते हैं

अक्सर साँसें रोक के सुनता रहता हूँ
उस के लम्स बदन पर धड़का करते हैं

नींद खुले तो उस को पहलू में पाएँ
हम भी कैसे सपने देखा करते हैं

सारा ग़ुस्सा अब बस इस काम आता है
हम इस से सिगरेट सुलगाया करते हैं

स्वप्निल तिवारी की अन्य रचनाएँ।

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