नज़्म

मुझको इतने से काम पे रख लो

मुझको इतने से काम पे रख लो जब भी सीने पे झूलता लॉकेट उल्टा हो जाए तो मैं हाथों से सीधा करता रहूँ उसको मुझको इतने से काम पे रख

उर्दू ज़बाँ

ये कैसा इश्क़ है उर्दू ज़बाँ का मज़ा घुलता है लफ़्ज़ों का ज़बाँ पर कि जैसे पान में महँगा क़िमाम घुलता है ये कैसा इश्क़ है उर्दू ज़बाँ का नशा

दबे हुए फ़ूल मोहब्बत के

तुम्हें अपने अतीत से नफ़रत है क्या, कभी कोई याद संजो कर रखी है? पूछो, तो कहते हो .. जो हो ना सका मुकम्मल, उसे सहेजने से क्या फ़ायदा! जैसे

निवाला

माँ है रेशम के कार-ख़ाने में बाप मसरूफ़ सूती मिल में है कोख से माँ की जब से निकला है बच्चा खोली के काले दिल में है जब यहाँ से

जिला-वतनी – किश्वर नाहिद

आज सरहद पे ख़ामोश तोपों के होंटों पे पपड़ी की तह भी चटख़ कर गिरी है हर इक रोज़ सुब्ह सवेरे से तारीकियों की तहों तक अकेला ही चलता है

किताबें – गुलज़ार

किताबें झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से बड़ी हसरत से तकती हैं महीनों अब मुलाक़ातें नहीं होतीं जो शामें उन की सोहबत में कटा करती थीं, अब अक्सर गुज़र

दस्तूर – हबीब जालिब

दीप जिस का महल्लात ही में जले चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले वो जो साए में हर मस्लहत के पले ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को मैं नहीं

नौजवान ख़ातून से – असरार-उल-हक़ मजाज़

हिजाब-ए-फ़ित्ना-परवर अब उठा लेती तो अच्छा था ख़ुद अपने हुस्न को पर्दा बना लेती तो अच्छा था तिरी नीची नज़र ख़ुद तेरी इस्मत की मुहाफ़िज़ है तू इस नश्तर की

मोहल्ला : सुधीर शर्मा की कविता

ज़रा पीछे मुड़ो देखो वहां पच्चीस बरस पहले मुहल्ले में पुराने और क्या क्या छोड़ आये हो। कई मौसम उघारे भीगते रहते हैं छज्जों पर कोई दोपहरी नंगे पाँव दिन

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