अमृता प्रीतमः जिनकी दुनिया सिर्फ़ साहिर और इमरोज़ नहीं थे


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किस्सा साल 1958 का है. वियतनाम के राष्ट्रपति हो ची मिन्ह भारत दौरे पर थे.

नेहरू से उनकी अच्छी दोस्ती थी. हो ची मिन्ह के सम्मान में कार्यक्रम हुआ तो लेखिका अमृता प्रीतम को भी बुलाया गया जो साहित्य के लिए नाम कमा चुकी थी.

हो ची मिन्ह की छवि उस नेता की थी जिन्होंने अमरीका तक को धूल चटाई थी.

1958 की उस शाम दोनों की मुलाक़ात हुई.

हो ची मिन्ह ने अमृता का माथा चूमते हुए कहा, “हम दोनों सिपाही हैं. तुम कलम से लड़ती हो, मैं तलवार से लड़ता हूँ.”

इसका ज़िक्र ख़ुद अमृता प्रीतम ने दूरदर्शन के एक इंटरव्यू में किया है.

इमरोज़इमरोज़ के साथ अमृता प्रीतम

साहिर और इमरोज़ से जुड़े किस्से

हो ची मिन्ह की इस बात में कोई शक़ नहीं कि 100 बरस पहले 31 अगस्त 1919 को पाकिस्तान में जन्मी अमृता प्रीतम कलम की सिपाही थी जिन्होंने पंजाबी और हिंदी में कविताएँ और उपन्यास लिखे.

यूँ तो अकसर अमृता प्रीतम का ज़िक्र गीतकार-शायर साहिर लुधियानवी और चित्रकार इमरोज़ से जुड़े किस्सों के लिए होता रहता है.

लेकिन इससे इतर अमृता प्रीतम की असल पहचान थी उनकी कलम से निकली वो किस्से कहानियों जो स्त्री मन को बेहद ख़ूबसूरती से टटोलते थीं…

1959 में पाकिस्तान में एक फ़िल्म आई थी ‘करतार सिंह’ जिसमें ज़ुबैदा ख़ानम और इनायत हुसैन भट्टी ने एक गीत गाया है – अज्ज आखां वारिस शाह नूँ कितों कबरां विच्चों बोल- वारिस शाह आज तुझसे मुख़ातिब हूँ, उठो कब्र में से बोलो

अमृता प्रीतम

सरहद पर बर्बादी के मंज़र

अमृता प्रीतम को 1947 में लाहौर छोड़कर भारत आना पड़ा था और बंटवारे पर लिखी उनकी कविता ‘अज्ज आखां वारिस शाह नूँ’ सरहद के दोनों ओर उजड़े लोगों की टीस को एक सा बयां करती है कि दर्द की कोई सरहद नहीं होती

इस कविता में अमृता प्रीतम कहती हैं, “जब पंजाब में एक बेटी रोई थी तो (कवि) वारिस शाह तूने उसकी दास्तान लिखी थी, हीर की दास्तान. आज तो लाखों बेटियाँ रो रही हैं, आज तुम कब्र में से बोलो ..उठो अपना पंजाब देखो जहाँ लाशें बिछी हुई हैं, चनाब दरिया में अब पानी नहीं ख़ून बहता है. हीर को ज़हर देने वाला तो एक चाचा क़ैदों था, अब तो सब चाचा क़ैदों हो गए.”

बंटवारे के दौरान अमृता प्रीतम गर्भवती थी और उन्हें सब छोड़कर 1947 में लाहौर से भारत आना पड़ा. उस समय सरहद पर हर ओर बर्बादी के मंज़र था. तब ट्रेन से लाहौर से देहरादून जाते हुए उन्होंने काग़ज़ के टुकड़े पर एक कविता लिखी.

उन्होंने उन तमाम औरतों का दर्द बयान किया था जो बंटवारे की हिंसा में मारी गईं, जिनका बलात्कार हुआ, उनके बच्चे उनकी आँखों के सामने क़त्ल कर दिए गए या उन्होंने बचने के लिए कुँओं में कूदकर जान देना बेहतर समझा.

बरसों बाद भी पाकिस्तान में वारिस शाह की दरगाह पर उर्स पर अमृता प्रीतम की ये कविता गाई जाती रही..

अमृता प्रीतम दूरदर्शन को दिए अपने इंटरव्यू में बताती हैं, “एक बार एक सज्जन पाकिस्तान से आए और मुझे केले दिए. उस व्यक्ति को वो केले एक पाकिस्तानी ने ये कहकर दिए कि क्या आप अज्ज आखां वारिस वाली अमृता से मिलने जा रहे हैं. मेरी तरफ़ से ये केले दे दीजिए, मैं बस यही दे सकता हूँ. मेरा आधा हज हो जाएगा.”

अमृता प्रीतम
अमृता प्रीतम के उपन्यास ‘पिंजर’ पर इसी नाम से बनी फ़िल्म

औरतों को आवाज़ देने वाली कलम

बरसों पहले अमृता प्रीतम की एक पुरानी इंटरव्यू में उनकी आवाज़ में ये पंक्तियाँ सुनी थी- “कोई भी लड़की, हिंदू हो या मुस्लिम, अपने ठिकाने पहुँच गई तो समझना कि ‘पूरो’ (एक लड़की का नाम) की आत्मा ठिकाने पहुँच गई.”

लेकिन इन पंक्तियाँ का मतलब क्या है तब पूरी तरह समझ में नहीं आया था. फिर एक दिन पिंजर नाम की एक किताब पढ़ने को मिली जो अमृता प्रीतम ने लिखी है और उसी पर पिंजर नाम से बनी हिंदी फ़िल्म देखी.

उपन्यास पिंजर ‘पूरो’ (उर्मिला मातोंडकर) नाम की एक हिंदू लड़की की कहानी है जो भारत के बंटवारे के वक़्त पंजाब में हुए धार्मिक तनाव और दंगों की चपेट में आ जाती है.

पूरो सगाई के बाद अपने होने वाले पति रामचंद के सपने देखती है. लेकिन उससे पहले ही उसे एक मुस्लिम युवक उठा ले जाता है और निकाह कर लेता है. माँ बनने के अपने एहसास को पूरो अपने तन-मन के साथ हुआ धोखा मानती है. इसी बीच दंगों में भड़की हिंसा के दौरान एक और लड़की अग़वा कर ली जाती है.

लेकिन पूरो अपनी जान जोखिम में डाल उस लड़की को एक और पूरो बनने से बचा लेती है और सही सलामत उस लड़की को उसके पति को सौंपती है जो उसका अपना सगा भाई था.

और तब उसके मन से ये अलफ़ाज़ निकलते हैं- “कोई भी लड़की, हिंदू हो या मुस्लिम, अपने ठिकाने पहुँच गई तो समझना कि पूरो की आत्मा ठिकाने पहुँच गई.”

और एक नई समझ के साथ जब आप पूरो के ये शब्द सुनते हैं तो मन में एक सिहरन सी उठती है. जिस तरह उन्होंने औरत के मन और उसकी इच्छाओं, उसके भीतर छुपे खौफ़, उसके साथ हुई ज़्यादतियों और उसके सपनों को अलफ़ाज़ दिए हैं वो उस दौर के लिए अनोखी बात थी.

अमृता प्रीतम

‘अज्ज आखां वारिस शाहू नूँ’

बाद के सालों में भी उन्होंने कई ऐसी कहानियाँ लिखीं जो औरत और मर्द के रिश्तों को औरत के नज़रिए से टोटलती रहीं- मसलन उनके उपन्यास ‘धरती, सागर ते सीपियाँ’ जिस पर 70 के दशक में शबाना आज़मी के साथ कादंबरी फ़िल्म बनी- एक ऐसी लड़की की कहानी जो बिना शर्त प्यार करती है और जब सामने वाला प्यार पर शर्त लगाता है तो अपनी मोहब्बत को बोझ न बनने देने का रास्ता भी अपने लिए ख़ुद चुनती है.

हालांकि अमृता की आलोचना करने वाले भी रहे जिसमें उनके अपने साथी खुशवंत सिंह भी थे.

पत्रिका आउटलुक के अपने मशहूर लेख में खुशवंत सिंह ने 2005 में लिखा था, “उनकी कहानियों के किरदार कभी जीवंत होकर सामने नहीं आते थे. अमृता की कविता ‘अज्ज आखां वारिस शाहू नूँ’ ने उन्हें भारत और पाकिस्तान में अमर कर दिया. बस यही 10 पंक्तियाँ है जो उन्हें अमर बनाती हैं. मैंने उनके उपन्यास पिंजर का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया था और उनसे गुज़ारिश की थी कि बदले में वो अपनी ज़िंदगी और साहिर के बारे में मुझे विस्तार से बताएँ. उनकी कहानी सुनकर मैं काफ़ी निराश हुआ. मैंने कहा था कि ये सब तो एक टिकट भर पर लिखा जा सकता है. जिस तरह उन्होंने साहित्य अकादमी जीता वो भी निराशाजनक किस्सा था.”

अमृता प्रीतमसाहिर के साथ अमृता

रसीदी टिकट

शायद वो टिकट वाली बात अमृता प्रीतम के मन में घर कर गई थी. बाद में उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी तो उसका नाम रखा था ‘रसीदी टिकट’ जिसमें साहिर लुधियानवी से जुड़े कई किस्से भी हैं.

रसीदी टिकट में अमृता प्रीतम लिखती हैं, “वो (साहिर) चुपचाप मेरे कमरे में सिगरेट पिया करता. आधी पीने के बाद सिगरेट बुझा देता और नई सिगरेट सुलगा लेता. जब वो जाता तो कमरे में उसकी पी हुई सिगरेटों की महक बची रहती. मैं उन सिगरेट के बटों को संभाल कर रखतीं और अकेले में उन बटों को दोबारा सुलगाती. जब मैं उन्हें अपनी उंगलियों में पकड़ती तो मुझे लगता कि मैं साहिर के हाथों को छू रही हूँ. इस तरह मुझे सिगरेट पीने की लत लगी.”

अमृता और साहिर का रिश्ता ताउम्र चला लेकिन किसी अंजाम तक न पहुंचा. इसी बीच अमृता की ज़िंदगी में चित्रकार इमरोज़ आए. दोनों ताउम्र साथ एक छत के नीचे रहे लेकिन समाज के कायदों के अनुसार कभी शादी नहीं की.

इमरोज़ अमृता से कहा करते थे- तू ही मेरा समाज है.

और ये भी अजीब रिश्ता था जहाँ इमरोज़ भी साहिर को लेकर अमृता का एहसास जानते थे.

बीबीसी से इंटरव्यू में इमरोज़ ने बताया था, “अमृता की उंगलियाँ हमेशा कुछ न कुछ लिखती रहती थीं… चाहे उनके हाथ में कलम हो या न हो. उन्होंने कई बार पीछे बैठे हुए मेरी पीठ पर साहिर का नाम लिख दिया. लेकिन फ़र्क क्या पड़ता है. वो उन्हें चाहती हैं तो चाहती हैं. मैं भी उन्हें चाहता हूँ.”

अमृता की ज़िंदगी के कई आयाम थे. ओशो से भी उनका जुड़ाव रहा और उनकी किताब की भूमिका भी उन्होंने लिखी.

बचपन में ही माँ की मौत, बंटवारे का दर्द, एक ऐसी शादी जिसमें वो बरसों घुट कर रहीं, साहिर से प्रेम और फिर दूरियाँ और इमरोज़ का साथ.. अमृता प्रीतम का जीवन कई दुखों और सुखों से भरा रहा.

अमृता प्रीतम

उदासियों में घिरकर भी वो अपने शब्दों से उम्मीद दिलाती हैं जब वो लिखती हैं-

दुखांत यह नहीं होता कि ज़िंदगी की लंबी डगर पर समाज के बंधन अपने कांटे बिखेरते रहें और आपके पैरों से सारी उम्र लहू बहता रहे

दुखांत यह होता है कि आप लहू-लुहान पैरों से एक उस जगह पर खड़े हो जाएं, जिसके आगे कोई रास्ता आपको बुलावा न दे.

 

(बीबीसी हिंदी के लिए)

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