Author: devansh-dixit

devansh-dixit

प्रेम में

कितनी नरम अनुभूतियाँ होती हैं इस प्रेम की जैसे जाड़े की सुबह में अंगीठी की आँच हवाओं संग बहती बालियों पर थिरकती सूर्य की किरणें, आदमी सिर्फ़ आदमी नही रह

भटकन भटकन शहर शहर

अक्सर ही इन दिनों कहीं रोना सुनाई देता है और मन जंगली झाड़ियों सा कुचलता चला जाता है आदम शिकारी सा सन्नाटा मारता है दहाड़े समूची देह में धूप-साँझ गली-गली

द्वंद

हम अपनी सोच के वृत्त की परिधि में फंसे हुए लोग हैं। एक अखबार का शीर्षक जो कुरीतियों पर अवछेप करता हुआ हर रोज उपस्थित होता है, और हम बढ़

छवि

जहाँ सभी लिख रहे हैं, प्रेम पर अपने हिस्से के किस्से, मैंने पाया स्वयं को अक्षम प्रेम पर लिखने में, किसी के लिये, प्रेम हृदय की कली पे विराजमान तितली

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