कितनी नरम अनुभूतियाँ होती हैं इस प्रेम की जैसे जाड़े की सुबह में अंगीठी की आँच हवाओं संग बहती बालियों पर थिरकती सूर्य की किरणें, आदमी सिर्फ़ आदमी नही रह
अक्सर ही इन दिनों कहीं रोना सुनाई देता है और मन जंगली झाड़ियों सा कुचलता चला जाता है आदम शिकारी सा सन्नाटा मारता है दहाड़े समूची देह में धूप-साँझ गली-गली