कितनी नरम अनुभूतियाँ होती हैं इस प्रेम की
जैसे जाड़े की सुबह में अंगीठी की आँच
हवाओं संग बहती बालियों पर
थिरकती सूर्य की किरणें,
आदमी सिर्फ़
आदमी नही रह जाता है
वह धर्मवीर भारती का
सन्निपात बन जाता है।
बड़ा निश्छल होता है प्रेम में मन
बाज़ार में खड़ा सिरफिरा सौदागर समझिए
जो लुटाता फिरता हो अपनी सारी जागीर मुफ़्त में
कभी-कभी
बच्चे से भी परिपक्वता में
चार कदम पीछे समझिए उसे
पल-पल में चंद अभिलाषाओं पर
अवसाद तक ग्रहण कर लेता है प्रेमी मन
बस एक नदी होती है किसी के अस्तित्व की
जिसके प्रवाह में बहता जाता है वह
जिसके होने से धुल जाते हैं
संग घटे सारे दुर्दिन।
प्रेम में डूबा व्यक्ति
बग़ैर रक्तपात किए ही
कलिंग से लौटा
अशोक होने लग जाता है
जीवन बोध आँखों में उतर आता है
अर्थ पदार्थ में नही
भावना में समाहित हो जाता है
जाने कितने
फूल खिल आते हैं
विचारों की लताओं में,
हर दिवस त्योहार हो जाता है
हथेलियाँ मैदान बन जाती हैं
आलिंगन एक खेल बन जाता है
हृदय हठी कृष्ण हो जाता है
और समय नाराज़ यशोदा
जिससे बच-बच कर
निकालता है प्रेमी
पुनः मिलन की जुगत।
‘Prem Mein’ A Hindi Poem by Devansh Dixit