भटकन भटकन शहर शहर


Notice: Trying to access array offset on value of type bool in /home/u883453746/domains/hindagi.com/public_html/wp-content/plugins/elementor-pro/modules/dynamic-tags/tags/post-featured-image.php on line 36

अक्सर ही इन दिनों
कहीं रोना सुनाई देता है
और मन जंगली झाड़ियों सा
कुचलता चला जाता है

आदम शिकारी सा सन्नाटा
मारता है दहाड़े समूची देह में

धूप-साँझ गली-गली
मारे-मारे फिरते हुए
जब साँस पकड़ लेती है कदम
तब देखता हूँ एक विक्षिप्त पुजारी
बरगद तले अज्ञात भाषा में
अपनी अनास्था के प्रमाण में
ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता है
बदले में सारे शहर का आदमी
उसके चरणों को स्पर्श कर
सिद्ध करता है आस्था का औचित्य
पुजारी और तीव्रता से बड़बड़ाता है

यह दृश्य मुझे बताता है
दुनिया के सभी ईश्वर
एक ख़ूँख़ार जागीरदार हैं
जिन्हें अपने विपक्ष के पक्ष में
नहीं बर्दाश्त कोई पहल ।

वह ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर
लम्बी छलाँगे मारता हुआ आकार
कोई आवारा जानवर नहीं
मेरे नगर का बच्चा है
उसके हाथों में ग़ुब्बारे हैं
जिन्हें जानवर का सिर समझ
पुलिसवाला मारता है डंडे
उसके क़रीब जाओगे तो पाओगे कि
वह ग़ुब्बारों में हवा नहीं
अपने हालात भरके बेचता है
भीख को अपना कर्म और
ग़रीबी को अपना धर्म समझता है ।

बारातों में मंच पर
नाचती हुई लड़की को देख
सियारों की जीभ से
लार टपकने लगती है
और वह नाचती हुई लड़की
नाचती हुई मजबूरी लगने लगती है ।

मेरे लिए प्रतीक्षा
एक दुखियारी औरत है
जिसका जवान बेटा
कर्फ़्यू की रात से
घर नहीं लौटा ।

नाई की दुकान से गुजरते वक्त
शीशे में खुद को देखता हूँ
और पाता हूँ कि
मेरे भीतर का अकेलापन
किसी दूसरी आकाशगंगा के
अज्ञात ग्रह पर समाधि बना चुका है ।

मैं हिसाब लगाता हूँ
अकेलेपन का न होना
और कितना अकेला बनाता है ?
हवा के भीतर से जवाब आता है
जितना एक नदी का सूखापन
मछलियों को अदृश्य बनाता है ।

जब-जब लौटता हूँ घर
खोलता है मुझे दरवाज़ा
स्याह होती है मुझ पर रोशनी
लेटता है मुझ पर बिस्तर
ओढ़ती है मुझको चादर
नींद नहीं आती
मैं जाता हूँ उस तक

ठीक उसी क्षण
दरवाज़ा पुनः
खटखटाता है मुझको
मेरे ही जैसा चेहरा
अपने हाथों में लिए
करता है सूचित –
“यह रहे आप
आज फिर पाये गए
अस्तित्व के जंक्शन पर
बेहोशी की हालत में।”

‘Bhatkan Bhatkan Shahar Shahar’ A Hindi Poem by Devansh Dixit

Related

दिल्ली

रेलगाड़ी पहुँच चुकी है गंतव्य पर। अप्रत्याशित ट्रैजेडी के साथ खत्म हो चुका है उपन्यास बहुत सारे अपरिचित चेहरे बहुत सारे शोरों में एक शोर एक बहुप्रतिक्षित कदमताल करता वह

अठहत्तर दिन

अठहत्तर दिन तुम्हारे दिल, दिमाग़ और जुबान से नहीं फूटते हिंसा के प्रतिरोध में स्वर क्रोध और शर्मिंदगी ने तुम्हारी हड्डियों को कहीं खोखला तो नहीं कर दिया? काफ़ी होते

गाँव : पुनरावृत्ति की पुनरावृत्ति

गाँव लौटना एक किस्म का बुखार है जो बदलते मौसम के साथ आदतन जीवन भर चढ़ता-उतारता रहता है हमारे पुरखे आए थे यहाँ बसने दक्खिन से जैसे हमें पलायन करने

Comments

What do you think?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

instagram: