द्वंद


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हम अपनी सोच के वृत्त की परिधि में
फंसे हुए लोग हैं।

एक अखबार का शीर्षक जो
कुरीतियों पर अवछेप करता हुआ
हर रोज उपस्थित होता है, और हम
बढ़ जाते हैं आगे उसे जहालत की अरगनी पर टांगकर
हम शायद वही शीर्षक बन चुके हैं

और दुःखद यह है कि
शीर्षक के पास हम पाठक हैं
अपितु हमारे पास कोई नही ।

सोच की अरगनी पर टँगे हम,
करते हैं स्मृतियों की दुनिया में यायावरी ।

कभी हिमालय की चोटी चढ़ते हुए
याद आ जाती है घर पे राह बुहारती माँ,
कभी तीरथ यात्रा के दौरान घेर लेते हैं
अपने ही द्वारा किये गए समस्त पाप,
कभी रोडवेज की बस में सफर करते-करते
स्वप्नों की उड़ान का करने लगते हैं हिसाब
तो कभी प्रेमिका की आँखों में संतृप्ति के बदले
नज़र आने लगता है किसी और का स्मरण।

हम भूत,भविष्य और वर्तमान के विरोधाभास से
संघर्ष करते लोग हैं।

जीवन और कुछ नही
हमारे ड्राइंग रूम की दीवार पे टँगी घड़ी है
जिसमे द्वंद का पेंडुलम ईश्वर ने लगाकर भेजा है

दुःख और हर्ष के बीचो-बीच,
द्वंद झुलाता रहता है हमें टिक-टिक-टिक
जब तलक न बज पड़े काल का घण्टा !

‘Dwand’ A Hindi Poem by Devansh Dikshit

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