ग़ज़ल

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ एक जंगल है तेरी आँखों में मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ तू किसी रेल-सी गुज़रती है मैं किसी पुल-सा थरथराता

मुझको इतने से काम पे रख लो

मुझको इतने से काम पे रख लो जब भी सीने पे झूलता लॉकेट उल्टा हो जाए तो मैं हाथों से सीधा करता रहूँ उसको मुझको इतने से काम पे रख

ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली – गौतम राजऋषि

ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली हुई ये जिंदगी इक चाय ताजी चुस्कियों वाली कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर मजा देती

और सब भूल गए हर्फ़-ए-सदाक़त लिखना – हबीब जालिब

और सब भूल गए हर्फ़-ए-सदाक़त लिखना रह गया काम हमारा ही बग़ावत लिखना लाख कहते रहें ज़ुल्मत को न ज़ुल्मत लिखना हम ने सीखा नहीं प्यारे ब-इजाज़त लिखना न सिले

नौजवान ख़ातून से – असरार-उल-हक़ मजाज़

हिजाब-ए-फ़ित्ना-परवर अब उठा लेती तो अच्छा था ख़ुद अपने हुस्न को पर्दा बना लेती तो अच्छा था तिरी नीची नज़र ख़ुद तेरी इस्मत की मुहाफ़िज़ है तू इस नश्तर की

आज सड़कों पर

आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख। एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ आज अपने बाजुओं

यानी इक क़तरे को दरिया होना है

तुझ में जा मिलना है, तेरा होना है यानी इक क़तरे को दरिया होना है, बैठा हूं अब ज़िद करके मैं शोलों पर, या तो जलना है या सोना होना है,

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