उन लबों पर जब कभी भी ख़ामुशी तारी रही
चुप रहूँ या मैं कहुँ कुछ कशमकश जारी रही
चुप रहूँ या मैं कहुँ कुछ कशमकश जारी रही
आँख मिचौली सरीखी खेलती है बारहा
इस मुई तक़दीर की भी खूब अय्यारी रही
धूप से तीखी लगे ये छाँव भी तुम बिन मुझे
कुछ समझ आता नहीं ये कैसी बेज़ारी रही
काट देने को इशक की शाख से सब टहनियाँ
इस जहाँ में हर किसी के हाथ में आरी रही
तेज़ तीखे तेवरों की धार सा चेहरा तेरा
कातिलाना नश्तरों से अपनी तो यारी रही..
एक सुकूँ देती हुई काली घटा की मुंतज़र
चांद तारों से सजी वो रात भी सारी रही
डूब जाने को समुंदर के हसीं आगोश में
यूँ सुलगना शाम तक सूरज की तैयारी रही