निर्मल जी,
आपको जब यह ख़त लिख रहा हूँ तो आज आपको गुज़रे हुए कोई 15 वर्ष हो चुके. पर आज तो आपका जन्मदिन है! मैं क्यों जन्म के दिन की शुरुआत गुज़रने से कर रहा? मुझे नहीं पता मगर हर बार आपको पढ़ते-सोचते-गुनते आपके इस दुनिया में न होने का ख़याल सबसे पहले आता है और फिर शुरू होती है एकतरफ़ा बातें. उन एकतरफ़ा बातों में बहुत सी यात्राएँ, सपने, नींद, इच्छाएँ, संशय, दुःख, किरदार शामिल होते हैं जो निकले तो आपकी कलम से मगर न जाने क्यों मेरे और मुझे जैसे अनेक पाठकों के अपने लगते हैं. न न, केवल ये ही नहीं – पहाड़, शामें, लैम्प, आकाश, पीला आलोक, स्मृति, मौन, एकांत, मार्च की गर्मी, अक्टूबर की सर्दी, कोन्याक, पब, होल्डाल, बाबू, चीड़ और इन जैसे अनेक शब्दों की ध्वनियाँ जैसे मुझे अपना हिस्सा लगती हैं. इन शब्दों के अर्थ हर बार और भीतर कहीं खुलते हैं. एक कसक बराबर बनी रहती है आपको पढ़ते. कितनी बार सोचा कि कुछ और उठाऊँ पढ़ने के लिए, पढ़ता भी हूँ मगर फिर कुछ दिनों बाद फिर आना पड़ता है. इसलिए मैंने अपने पढ़ने का तरीक़ा थोड़ा सा बदला है. एक साथ कम से कम तीन किताबें होती हैं एक वक़्त में बिस्तर के पास या स्टडी टेबल पर. जिसमें एक कोई किताब आपकी होगी ही. फिर भले ही आपको न पढ़ रहा मगर न जाने क्यूँ एक सुकून बराबर रहता है. चूँकि हर महीने घूमता ही हूँ तो मेरे बैग में भी कोई न कोई किताब रहती ही है. अपनी लगभग सारी यात्राओं में घर से निकलते हुए बिल्कुल आख़री मौक़े पर आपकी एक किताब तो रख ही लेता हूँ. और यह क्रम पिछले कई बरसों से चल रहा.
मेरी ज़िंदगी में आए ख़ुशी और दुःख के मौक़ों पर उन पन्नों का साथ होना अचम्भा भी है कि कैसे एक लेखक का होना आश्वस्ति का होना है. जिन लोगों से मैं नहीं मिला और जिनसे मिलने की ख़्वाहिश है उसकी लिस्ट बहुत छोटी है. किशोर कुमार, नवीन सागर, गुरुदत्त और निर्मल वर्मा. इस बात को अक्सर दोहराता हूँ. बहुत शुरू में हम व्यक्तियों के प्रति आकर्षित रहते हैं. फिर धीरे धीरे और समय के साथ ज़िंदगी के सच-झूठ, क़िस्से आदि प्रभावित करना बंद भी कर देते हैं. आपकी बनाई दुनिया मुझे सपनों की भी लगती है और बिल्कुल अभी की भी. इसलिए अब तटस्थता के साथ आलोचनाओं के साथ मैं उस लिखे को पढ़ पाता हूँ. सहमति-असहमति का सवाल भी नहीं. समय के साथ अब इन सबने जगह बना ली है. मेरे खुद के लिखने की जहाँ तक बात है उसकी प्रैक्टिस में भी यह विस्तार मदद करता है. दरअसल, सिनेमा की भाषा में आपके लिखे वाला लैंस मैं भी यूज़ कर पाता हूँ.
आपका होना तसल्ली है. इस वक़्त मेरी स्थिति उस आदमी के जैसी हो रही जो इंटरव्यू के लिए कितनी तैयारी कर के घर से निकलता है मगर एन इंटरव्यू के वक़्त घबराहट का शिकार हो जाता है. आपको लगभग हर रोज़ पढ़ता हूँ, शेल्फ़ में या मेज़ पर किताबों को देख लेता हूँ, टाइटल पढ़ लेता हूँ पर आज इस समय शून्य हूँ. थोड़ी ख़ुशी ये है कि वे जो आप से मिल सके, जानते थे उनसे बहुत सारे मेरे सीनियर्स को मैं आज जानता हूँ और बहुत सी बातें उनसे सुन पाता हूँ. और सुनना चाहता हूँ. बातें बहुत सारी हैं पर लग रहा इस पत्र में केवल धड़कनें रख पाने की जगह बन सकी हैं. शायद किसी तरह आप तक पहुँच सकें ..
आपके हज़ारों पाठकों में से एक
– सुदीप सोहनी