रात अकेली है


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यह टाइटल पढ़ते ही किसी भी फिलिमची को फिल्म ज्वेल थीप का आशा भोसले का गया वो अद्भुत गीत याद आ जाएगा – “रात अकेली है बुझ गए दिए” हालांकि यहां इस बोल से इस फिल्म का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है लेकिन दूर का रिश्ता तो है ही, ख़ासकर जब आप उस गाने की इस पंक्ति को सुनते हैं –

सवाल बनी हुई दबी दबी उलझन सीनों में
जवाब देना था तो डूबे हो पसीनों में

पूरी फिल्म उन्हीं सवालों, दबी-दबी उलझनों और डूबे हुए अनदेखे पसीनों की एक ऐसी कथा/व्यथा है जो मद्धम-मद्धम अपना जादू ठीक उसी प्रकार बिखेरती है जैसे कि रातरानी की कोई भीनीभीनी ख़ुशबू आपको कहीं धीरे से आकर मदहोश कर जाती है। यह प्रक्रिया उसी वक्त शुरू हो जाती है जब जांच कर रहा इंस्पेक्टर कहता है – “यहां हुई है एक हत्या और हम करेगें उसकी – जांच।” अगर आप एकाग्रचित्त होकर यह सिनेमा देख रहे हैं (देखना भी एक आर्ट है और इसे भी सीखना पड़ता है) तो यह आपके भीतर आपको आत्मसात करते हुए कहीं गहरे समाहित होती चली जाती है और अंत-अंत तक अपना रहस्य, रोमांच, उलझन बनाए रखती है और अगर आप सिनेमा के प्रेमी है तो आपको बार-बार कुछ क्लासिक फिल्मों की याद भी आएगी। कुछ याद आने में कोई बुराई भी नहीं है! वैसे ख़बर है कि यह वाली सन 2019 में आई अमेरिकन फिल्म Knives Out का जुड़वा भाई है। मैंने अभी तक Knives Out देखी नहीं है तो इस पर कोई बात करना सही नहीं होगा। वैसे न भी देखी है तब भी यह फिल्म आपको कम से कम निराश तो नहीं ही करती है बल्कि देसी ही लगेगी और आख़िरीदम तक सस्पेंस और थ्रिल बड़े ही अच्छे से बरक़रार भी रखती है। जैसे ही लगता है कि मामला सुलझ गया तभी कुछ ऐसा हो जाता है कि उलझन और बढ़ जाती है। यह सारा खेल ठीक वैसा ही है जैसे आप उलझे हुए धागों को सुलझाते हैं, सतर्कतापूर्वक और बड़ी ही सावधानी के साथ और जब सुलझ जाता है तब आप चैन की सांस लेते हैं कि चलो काम हो गया।

पहला दिन पहला शो का जुनून ही कुछ और होता है। मल्टीप्लेक्स ने सिनेमा देखने को वैसे तो एक कमाल के अनुभव में परिवर्तित कर दिया है लेकिन सिंगल स्क्रीन का भी अपना ही एक विसाले सनम था। एडवांस बुकिंग के लिए सुबह आठ बजे से ही लाइन में लग जाना, फिर 9 बजे 2 मिनट के लिए खिड़की का खुलना और 5 टिकट काटके हाउसफुल का बोर्ड लगा देना, फिर शो के समय टिकटों की कालाबाज़ारी और टिकट खिड़की पर पहलवानी करते हुए किसी प्रकार टिकट प्राप्त करना और फिर एक अतिकष्टदायक माहौल और सीट में बैठकर सिनेमा के जुनून का आनंद लेना और अपना नाम सिनेमची की लिस्ट में देखना, यह सब पागलपन था। फिर पहले दिन पहला शो का भी एक अपना नशा था। किसी भी प्रकार से टिकट लेना ही लेना है, चाहे ब्लैक में ही क्यों न लेना पड़े और प्रथम दिन प्रथम शो देखना ही देखना है, वरना फिल्म देखनी ही नहीं है। यह बात इसलिए सुना रहा हूं कि नेटफ्लिक्स पर आई “रात अकेली है” को लेकर भी मेरे मन में ऐसा ही भाव था, उसकी मूलतः दो वजह है – पहला नवाज दा और दूसरे ख़ालिद तैयबजी और तीसरा कि यह एक मर्डर मिस्ट्री फिल्म है। अब इन वजहों में से आप पहले, दूसरे स्थान और तीसरे स्थान पर किसी को भी रख लीजिए, कोई फ़र्क नहीं पड़ता है।

अब तीन बातों का ज़िक्र हुआ तो अमूमन ध्यान वहाँ टिका होगा कि यह ख़ालिद तैयबजी कौन हैं? इसका सही जवाब फ़िलहाल गूगल के पास भी नहीं है। आप उनका नाम टाइप करेगें तो कोई विकिपीडिया पेज नहीं आएगा, बस इतनी सी जानकारी आएगी एक जगह कि वो भारतीय अभिनेता हैं और दो तीन फिल्मों के नाम आ जाएगें – बस। फिर दो पुस्तकों का नाम आ जाएगा जिसे इन्होंने अनुवादित किए हैं, एक है बहुत ही मत्वपूर्ण Zbigniew Cynkuti की पुस्तक Acting with Grotowski. वैसे ख़ालिद जंगल के मोर हैं। लेकिन हम सब तो इस बात में विश्वास करते हैं कि “जंगल में मोर नाचा, किसने देखा?” लेकिन वहीं यह सत्य भूल जाते हैं कि मोर के असली नाच का मज़ा लेना है तो आपको जंगल में नाचते स्वछंद मोर का ही नाच देखना पड़ेगा, बेचारा पिंजड़े में बंद क्या मोर और क्या शेर! भारत में जो लोग भी अभिनय और रंगमंच नाम की विधा में थोड़ी भी गंभीरता से रुचि रखतें हैं वो यह बात भलीभांति जानते हैं है कि ख़ालिद का स्थान क्या है, यह हमारी बदक़िस्मती हैं कि हमें उन चरागों की कोई परवाह ही नहीं, जिन्हें हवाओं का कोई ख़ौफ़ ही नहीं। क्या फ़र्क पड़ता है यदि निदा फ़ाजली यह कहते हैं कि

जिन चिरागों को हवाओं का कोई खौफ़ नहीं
उन चिरागों को हवाओं से बचाया जाए

बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उड़ाया जाए

बहरहाल, एक छोटी सी लेकिन बेहद महत्वपूर्ण भूमिका में ख़ालिद को इस फिल्म में देखना किसी विरासत से दीदार होने के जैसा है। यहां ख़ालिद प्रसिद्ध अभिनय चिंतक स्तानिस्लावस्की द्वारा कहे इस कथन को साक्षात प्रमाण दे रहे हैं कि कोई भी भूमिका छोटी या बड़ी नहीं होती बल्कि अभिनेता छोटा बड़ा होता है। वैसे यह भी संभव है कि उपरोक्त बातें मैं उनके सम्मान में अर्ज़ कर रहा होऊँ। लेकिन एक बात तो है कि अब हमें हमारी विरासतों की सच में कितनी चिंता है, वो हम सब बहुत ही अच्छे जानते हैं।

फिल्म में ज्यातर अभिनेताओं की टोली है, स्टार होते तो फिल्म फिल्मी होती लेकिन फिल्म का फिल्म होना और फिल्मीपने से बचे रहना भी एक कला है और उतने पर भी उसका आकर्षण बरकरार रहे, यह फिल्म उस कला में पास होती है। वो दृश्य दर दृश्य बड़े इत्मीनान से कुछ ऐसे खुलती है जैसे कोई पौधा अपने प्राकृतिक और कलात्मक समय से बड़ा होता है। वैसे फिल्म कल ही देख ली थी, फिर कई बार कुछ दृश्य आगे-पीछे करके देखा-समझा फिर जैसे “आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक” वैसे ही थोड़ा असर होने के लिए छोड़ दिया, उसके बाद जो महसूस हो रहा है वो दर्ज़ किया जा रहा है। साथ ही यह अर्ज़ भी कर रहा हूं कि सिनेमा पर मेरे लेखन को मेरी राय माना जाना चाहिए, मेरा विमर्श/व्याख्या माना जाना चाहिए, समीक्षा नहीं और मेरा लेखन ही अंतिम सत्य है ऐसा भ्रम किसी मूर्ख को ही हो सकता है। किसी भी कलात्मक कार्य (अगर वो सच में कलात्मक है तो) की समीक्षा करना बड़े ज्ञान का काम है, दुनियां में बहुत कम लोगों के पास ही यह हुनर है। आप और हम अमूमन समीक्षा के नाम पर जो पढ़ते हैं वो FIR जैसा कुछ होता है, समीक्षा नहीं। कहानी लिख देना, स्टार दे देना, फलां-फलां का काम गिनवा देना, इसे समीक्षा नहीं कहते बल्कि संभव है कि किसी कला की समीक्षा करते हुए किसी को पता ही न चले कि कोई आपको ज्ञान की किन-किन गलियों की सैर करा दे और जब वापस लौटे तब तक आप वही व्यक्ति न रह जाएं, जो उस समीक्षा को पढ़ने से पहले थे। लेकिन ऐसी लिखाई हिंदी में एक तो बहुत कम है और अगर है भी तो उसकी परवाह करनेवाले बड़े कम हैं।

बाक़ी इस फिल्म के बारे में ज़्यादा लिखना या कुछ और लिखना इसके स्वाद को ख़राब करना होगा। अगर आप सिनेमा को एक सार्थक कलात्मक माध्यम मानते हैं तो इसे देखें, सस्पेंस और थ्रिल पसंद करते हैं तो इसे देखें, सटल्ड अभिनय पसंद करते हैं तो इसे देखें, हर चीज़ स्वादानुसार पसंद करते हैं तो इसे देखें और सबसे ज़रूरी बात कि नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी की प्रसिद्धि से ज़्यादा सिद्धि के रसिया हैं तो इसे देखें और साथ में कहानी में शराफ़त के पीछे का विद्रूप चेहरा का परत दर परत खुलना पसंद करते हैं तो ज़रूर ही देखें। वैसे एक चीज़ जो इस फिल्म में सबसे ज़्यादा नोटिस करनेवाली बात है वो यह कि अमूमन ज़्यादातर चरित्र यहां अंधों का हाथी वाले क़िरदार में है, जो अपने-अपने हिस्से का सच और अपने-अपने हिस्से का झूठ बोलता पाया जाता है और आख़िरीदम तक उसमें ही टिके रहने की पुरज़ोर कोशिश में भिड़ा भी देखा जा सकता है। जब बड़ी ही ज़िद्द के साथ सच को खोदकर बाहर निकाला जाता है, तब असली चेहरे सामने आते हैं और जब आते हैं तब सब चौंक पड़ते हैं। जो दिखता है वो ऊपरी परत है और जो होता है वो कुछ और ही है। यह दिखने और होने के बीच का सारा खेल है जो रहस्य और रोमांच पैदा करता है। वैसे मुझे कई बार थोड़ी-थोड़ी चाइनाटाउन भी याद आई, पता नहीं वो आनी चाहिए थी कि नहीं।

निर्देशक – हनी त्रेहन
अभिनेता – नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे, ख़ालिद तैयबजी, श्वेता त्रिपाठी, तिग्मांशु धूलिया, शिवानी रघुवंशी, निशांत दाहिया, इला अरुण, स्वानंद किरकिरे और आदित्य श्रीवास्तव।

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