क्लास ऑफ ’83


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कहानी-एक पुलिस ऑफिसर हैं, विजय सिंह, जिन्हे पनिश्मन्ट पोस्टिंग पर पुलिस ट्रैनिंग अकादेमी के डीन बना दिया जाता है। विजय सिंह का भौकाल है एकाडमी में, हालाँकि उन्होंने कोई क्लास नहीं ली साल भर फिर भी। 80s का जमाना है, मुंबई में मिल बंद होने से की कई सारे कामगार रोजी रोटी के चक्कर मे अन्डरवर्ल्ड की ओर मुड़ गए हैं। कलसेकर और नाईक गैंग मे गैंगवार चल रही है। अन्डरवर्ल्ड और राजनीति के नेक्सस को कानूनी तरीके तोड़ना से मुश्किल होता जा रहा है। ऐसे में डीन विजय सिंह चुनते हैं पाँच जाँबाज ट्रैनीज को, एक स्पेशल सीक्रिट फोर्स बनाकर जो बिना किसी कायदे की चिंता कर सीधे अन्डरवर्ल्ड को खत्म कर सकें। पहले सब ठीक ठाक चलता है फिर कब ये टास्क फोर्स भी गैंगवार मे साइड चुन के इसी का हिस्सा बन जाती है, यही कहानी है फिल्म की।

क्या शानदार कहानी है! हैं ना। हुसैन जैदी, जिनकी कहानी पर ये फिल्म बनी है, मुंबई क्राइम और अन्डरवर्ल्ड के बारे में उतने ही माहिर कहे जा सकते हैं, जितने अपने अपने फील्ड्स मे शर्लाक होम्स हैं, सचिन तेंडुलकर हैं, बेजान दारुवाला हैं, हर्षा भोगले हैं। मतलब वो जो उस फील्ड का नाम आते ही सबसे पहले दिमाग मे आए। मुंबई अन्डरवर्ल्ड पर बनी शायद ही कोई ऐसी फिल्म होगी, जिसने इनकी किताबों से रेफ्रन्स न लिया हो। चूँकि मैंने इनकी 3-4 किताबें पढ़ रखी हैं, तो इनके नाम के भरोसे ही फिल्म देखना बनता था। और कहानी में कोई कमी है भी नहीं। पर दुर्भाग्य से फिल्म मे है।

सिनेमेटोग्राफी– 80 के दशक के मुंबई को बनने मे काफी मेहनत की गई है, फिल्म के रंग संयोजन, फ्रेम्स, सेट्स आदि को सेपिया टोन दे कर माहौल पूरा उसी जमाने का बनाया गया है। इस दिशा मे वाकई मेहनत की गई है, जो तारीफ के काबिल है।

ऐक्टिंग– बॉबी देओल उन अभिनेताओं मे से हैं, जिनका सीधे बचपन से बुढ़ापा आ गया। हमेशा चॉकलेटी हीरो बनने के अलावा फिल्मों मे शायद ही वो कभी बाप के किरदार मे आए हो, और यहाँ सीधे दादा बन गए। झुकी हुईं मूँछें, चेहरे मे झुर्रियां और सीधा सपाट चेहरा। रोल मे वो जमें हैं। जो 5 रंगरूट हैं, उन्होंने भी सही ऐक्टिंग की है।

डायरेक्शन– बताया न, फिल्म मे कहानी भर भर के है और फिल्म का रन टाइम केवल 98 मिनट्स। इसलिए फिल्म बहुत तेज भागती है, जैसे टेम्पल रन मे भागते हैं बिना सीनरी को इन्जॉय किये हुए। फिल्म की चीजों, को रेफ्रन्सेस को छूती है और बिना उनको इक्स्प्लोर करे आगे निकल जाती है। अगर इसे फुरसत से फिल्म की बजाय एक सीरीज बनाते तो मज़ा आ जाता। फिल्म मे जब तक मजा आना शुरू होता है फिल्म खत्म हो जाती है।

वक्त का सितम– मुझे सच मे लगता है कि अगर लॉकडाउन न लगा होता तो हमें एक बेहतर फिल्म देखने को मिलती। फिल्म देखने की बाद बार बार ऐसा लग रहा है जैसे फिल्म आधी ही बनी थी कि लॉकडाउन हो गया और नेटफलिक्स पर इसे आधा-अधूरा ही पेश कर दिया गया। फिल्म मे कई जगह विजय सिंह की बातें लेजन्ड की तरह की जाती हैं और दर्शक उम्मीद करता है कि फ्लैशबैक मे उनके जलवे देखने को मिलेंगे। पर फिल्म खत्म होते होते दर्शक का हाल वैसे ही हो जाता है जैसे पुरानी फिल्मों में माहौल बनते देख उम्मीद लगाए बैठे दर्शक को हीरो हेरोइन की जगह अचानक परदे पर आए हिलते डुलते दो फूल या चोंच लड़ाती दो चिड़ियाँ देख के होता है। अच्छे दिनों कभी आते ही नही और फिल्म खत्म हो जाती है। विजय सिंह का पास्ट, उनका डिप्रेशन, सूइसाइड की कोशिश, पारिवारिक जीवन आदि वाले हिस्से की शायद शूटिंग ही नहीं हो पाई। मुझे ये भी लगता है मुख्य विलेन कालसेकर जिसका पूरी फिल्म मे बार बार नाम लिया गया है, उसे जिस तेजी से आधे मिनट मे निपटा दिया गया है, दरअसल वो असली फिल्म मे कोई छोटा मोटा गुंडा होगा पर जल्दबाजी मे उसे ही कालसेकर बोल के निपटा दिया गया। और बाकी फिल्म काफी हद तक फिल्म पोस्ट प्रोडक्शन के दौरान वॉयस ओवर से निपटा दी गई।

खैर, जो है सो है, क्लाइमेक्स को छोड़ दें तो फिल्म जितनी भी है और जैसे भी है आधी अधूरी टाइप, जब तक चलती है ,अच्छी लगती है।

रेटिंग- 2.5 आउट ऑफ 5

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