यार जादूगर

पुस्तक यार जादूगर में नीलोत्पल, हिंदी साहित्य में बहुत कम प्रयुक्त जादुई यथार्थवाद को प्रस्तुत करते हैं और साहित्य की कलात्मक विविधता का विस्तार करने का प्रयास करते हैं। जादुई यथार्थवाद के अंतर्गत किसी प्रचलित जादुई या पौराणिक कथा के माध्यम से यथार्थ परिस्थितियों को कहने का प्रयास किया जाता है।

पुस्तक पढ़ने से पहले मुझे पता भी नहीं था कि हत्या के देवता का वर्णन भी भारतीय पुराणों में दिया गया है। यमराज के पुत्र कतिला का कार्य हत्या के समय लोगों का प्राण खींचना है। अपने कर्तव्य/ कार्य से असंतुष्ट कतिला यमलोक से भागकर मृत्युलोक (जहां मृत्यु सबसे बड़ा सत्य है) आ जाता है। फिर उसे खोजते हुए यम मृत्युलोक आते हैं और उसे कर्तव्य का बोध करवाते हैं। इस कथा का आधार लेकर यार जादूगर का कथानक रचा गया है।

पुस्तक में एक रहस्यमई बूढ़ा है जो मृत लोगों को जीवित करने की विद्या जानता है और यह दामूसिंघा गांव की डेनियल कोठी में आकर रहने लगता है। यहां से पुस्तक में प्रारंभ होता है मृत्यु व जीवन के जटिल प्रश्न का विवेचन। पुस्तक में धर्म (सांप्रदायिकता नहीं) जोकि अनुभूति का विषय है पर तर्क (जो विश्लेषण का विषय है) से लगातार प्रहार किया गया है और “धर्म अफीम है” को स्थापित करने का प्रयास कहीं सीधे तो कहीं व्यंग्य से किया गया है।

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कतिला की कथा के कारण कई आलोचकों द्वारा पुस्तक को आध्यात्मिक धार्मिक विषय की पुस्तक कहा गया है जबकि यह विपरीत कथ्य कहती है। पुस्तक कतिला का प्रयोग कतिला (देवता) के नकार के लिए करती है। पुस्तक यही स्थापित करती है कि जीवन मनुष्य नहीं मनुष्यता में है, जिंदगी आदमी नहीं आदमीयत में है वरना अपना सर्वस्व न्यौछावर करके बच्चा पाने की अभिलाषा करने वाले मां-बाप स्वयं उस प्राप्त जीवन को अस्वीकृत कर देते हैं। पुस्तक मनुष्यता की सभी नहीं लेकिन कई परत खोलती है। कुल मिलाकर लेखक नास्तिकता के दर्शन और इहलोकवाद को ही पुष्ट कर रहे हैं। हालांकि कथानक का पहला पृष्ठ कहता है कि “लोक में देखे से ज्यादा कहे का बल है” किंतु पुस्तक का कथ्य इसके विपरीत जाता है। इसके अतिरिक्त पुस्तक कई अन्य सामाजिक पहलुओं को भी छूती है।

पुस्तक प्रशासन की असंवेदनशीलता के साथ उसकी आंतरिक विद्रूपता पर भी व्यंग करती है। पुस्तक प्रशासन में “बकरा तैयार करने की प्रक्रिया” और भ्रष्टाचार के बहुस्तरीय अधोमुखी निस्पंदन को दिखाती है। पुस्तक संसाधनों की सीमा में पारिवारिक प्राथमिकता (प्रायोरिटी) निर्धारण की हृदय विदारक घटना को लिखती है। बूढ़े बिना संशय के सबसे पहले त्यागे जाते हैं, फिर स्वयं व बच्चों में किसी एक के चुनाव का जटिल प्रश्न आता है जो पुस्तक में तीन जगह दिखता है। सुंदर व फूलचंद के रिश्ते के माध्यम से पुस्तक “आचरण की सभ्यता का रहस्य” खोलती है।

पुस्तक मृत्यु व डर की आवश्यकता को सामने रखती है क्योंकि इनके बिना मनुष्य अराजक हो जाएगा। कोठी से बूढ़े का डर खत्म होते ही वहां वह “मानव” अब खुलेआम मूत सकता है जो कभी कोठी में आने से पहले डरता था। यहीं कतिला का कार्य गरिमा पूर्ण हो जाता है, वह यार जादूगर हो जाता है। पुस्तक हल्का सा व्यंग स्त्रियों की समाज में स्थिति व मानव-जीव संबंधों पर भी करती है। हालांकि डेनियल कोठी के कुत्ते का रहस्य मुझे समझ नहीं आया।

इस कथा को कहने के लिए नीलोत्पल ने अंधेरे के तमाम बिंब खींचे हैं और यह कार्य खूबसूरती से किया गया है। इन बिंबों में अंधेरे का हास्य, जुगुप्सा, करुणा, रौद्र, वीभत्स आदि सभी भाव दिखते हैं। निर्मला जैन शायद इसके बाद नीलोत्पल को निराला व मुक्तिबोध के बराबर खड़ा होने की अनुमति दे दें। इसके अलावा भी पुस्तक शहर बनते गांव के दृश्य, पुलिस थाने के दृश्य, अवध नारायण के घर के दृश्य और कुछ जंगल में घटना रचती है। अधिकांश जगह विश्वसनीयता बनी रहती है लेकिन गांव का सीमित परिवेश ही दिखाया गया है जिसमें गिनती के लोग वह दुकान ही हैं जो गांव जैसा कम और गांव का सीमांत अधिक लगता है।

इस वातावरण में प्रारंभ का आधा कथानक काफी धीमी गति से चलता है। घटनाएं अत्यंत कम है और कथा आगे बढ़ती हुई दिखती नहीं है। यदि यह उपन्यास स्थिति प्रधान होता और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण लेखक द्वारा किया जा रहा होता तो यह समस्या की जगह विशेषता माना जाता किंतु यहां स्थिति प्रधान उपन्यास नहीं है। बाद के आधे भाग में घटनाएं उचित गति से आगे बढ़ती हैं तथा विश्लेषण कम हो जाता है जिससे उपन्यास पाठक पर अपनी पकड़ बनाने लगता है। यह पुस्तक मुख्यतः विश्लेषणात्मक शैली को ही लेकर चलती है। पुस्तक में मनोवैज्ञानिक के साथ नृवैज्ञानिक व सामाजिक विश्लेषण साथ-साथ लेखक ने किए हैं। कहीं-कहीं तो एक छोटी सी घटना के विश्लेषण में पेज भर का विश्लेषण लेखक ने कर दिया है और दुर्भाग्य से कई जगह पुस्तक के कथानक में यह विश्लेषण कोई महत्व नहीं रखता। इसी कारण पुस्तक धीमी भी हो जाती है विशेषतः जब व्यक्ति बाबा का ज्ञान लेने नहीं कहानी पढ़ने आया हो।

पुस्तक के चरित्रों को लेखक ने तकनीकी दक्षता के साथ उकेरा है जिस कारण पुस्तक पढ़ने के पश्चात प्रत्येक चरित्र के गुण दोष याद रहते हैं। कोई भी चरित्र चलते में नहीं निपटाया गया है। पुस्तक में मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी चरित्रों को रचा गया है। जोगी सिंह दरोगा में एसपी न बन पाने की कुंठा (कसक) बार-बार दिखती है तो फूलचंद व चौकीदार के सामाजिक यथार्थ की दबी हुई मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्ति पुस्तक में दिखती है। अवध नारायण द्वारा गुस्से से गद्दे पर मोबाइल फेंकने का प्रसंग भी प्रसंशनीय है।

नीलोत्पल की भाषा पर पकड़ यहां भी बखूबी दिखती है। फूलचंद, जोगी सिंह, हरिहर, बूढ़ा बाबा, एसपी आदि के किरदार के अनुसार व मनोवैज्ञानिक स्थिति के अनुकूल भाषा व शब्द चयन संवादों की भाषा में दिखता है। वह देशज भाषा के प्रयोग से नहीं हिचकते हैं और कुछ शब्दों का अर्थ केवल प्रसंग अनुसार ही अनुमान लगाना पड़ता है। तत्सम के साथ अंग्रेजी व संस्कृत के तद्भव शब्द, केवल 4 असंसदीय शब्द, फारसी शब्द, शुद्ध अंग्रेजी के मेल से बनी यह भाषा सरल व प्रभावी बनी रहती है, इस स्तर पर कोई समस्या नजर नहीं आती। विश्लेषण की भाषा में सूत्रशैली, मुहावरे, प्रतीक व व्यंग्य भरे हुए हैं।

पुस्तक में “साधन संपन्न तो पहले सामाजिक बंधन तोड़ता है, फिर समाज को और फिर एकांत के हथौड़े से खुद को” जैसे सूत्र वाक्य हैं तो “कोठी में उड़ता बवंडर अब शांत हो चला था” जैसे प्रतीकात्मक वाक्य भी हैं। लेकिन कहीं-कहीं लेखक ने उपमाओं के ज्यादा ही पीछे दौड़ते हुए खुद को केशवदास बना दिया है। मूछों को स्त्री से और ‘ मूछों के ताव देने’ को ‘ स्त्री हिंसा’ से जोड़ना वैसा ही है जैसे मैं कहूं “पुरुष सदैव से स्त्री के वक्ष, नितंब, वक्र, होठ, केश, नेत्र आदि पुल्लिंग अंगों पर रीझते आए हैं, वस्तुतः पुरुषों को यह समझना चाहिए कि वे स्त्री से प्रेम नहीं करते बल्कि वे समलैंगिक हैं।” अगर मेरा कथन शुद्ध बकवास है तो यह उपमा भी केवल बौद्धिक जुगाली ही है मेरे लिए। ऐसी ही एक उपमा फूलचंद के नाम के “फूल” को लेकर भी है।

पुस्तक में प्रभावशाली संवाद लिखे गए हैं लेकिन संवाद योजना की बात की जाए तो बहुत से संवाद विचलित हुए है जिन का कथानक से संबंध कम है जबकि लेखक की व्यक्तिगत विचारधारा या दर्शन को कहने की कोशिश अधिक साफ दिखती है। हरिहर, यम, फूलचंद के अंतिम समय के संवाद एकतरफा हैं। वहां संवादों का कोई वैचारिक द्वंद नहीं दिखता और लेखक अपना दर्शन मात्र कह भर देते हैं, उसको स्थापित नहीं करते।

नीलोत्पल को उनके लेखन में व्यंग्य के लिए जाना जाता है। पुस्तक के बहुत से बेहतरीन हास्य व गंभीर व्यंग्यों में से कुछ चुनिंदा व्यंग्यों के साथ समाप्ति व इस जादुई यथार्थवाद के लेखन के लिए लेखक को ढेरों शुभकामनाएं।

“ऐसे मौके पर इसी तरह तटस्थ हो जाने का अभ्यासी आदमी आगे चलकर गृहस्थ हो जाता है”
“अंदर मकड़ी के जाल ने सुरक्षा घेरा बना रखा था, जरूरी सरकारी फाइलों के लिए”
“पैसे में पृथ्वी से ज्यादा गुरुत्वाकर्षण और अप्सरा से ज्यादा आकर्षण होता है”

यार जादूगर
लेखक: नीलोत्पल मृणाल
पृष्ट संख्या : 240
मूल्य: 199
प्रकाशक: हिन्द युग्म

‘Yaar Jaadugar’ Book Review by Aarushi

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