दिसंबर का महीना मुझे आख़िरी नहीं लगता


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दिसंबर सर्द है ज़्यादा इस बार
पहाड़ों पर बर्फ़ गिर रही है लगातार…

दिसंबर का महीना मुझे आख़िरी नहीं लगता
आख़िरी नहीं लगतीं उसकी शामें
नई भोर की गुज़र चुकी रात नहीं है यह
भूमिका है उसकी
इस सर्द महीने के रूखे चेहरे पर
यात्रा की धूल है
फटी एड़ियों में इस यात्रा की निरंतरता

दिसंबर के पास सारे महीने छोड़ जाते हैं
अपनी कोई न कोई चीज़
जुलाई बरिश
नवंबर पतझड़
मार्च सुगम संगीत

तेज़ ठंड ने फ़िलहाल धकेल दिया है सभी चीज़ों को
पृष्ठभूमि में
“पारा शून्य को छूते-छूते रह गया है”
समाचारों में बताया गया

ऐसी ही एक सुबह मैं देखती हूँ
एक तस्वीर
रात है… कुहरा छाया है
अनमना हो आया है कुहरे में बिजली का खंबा
चादर ओढ़े फ़ुटपाथ पर कोई सो रहा है

नीचे लिखा है:
जिन्हें नाज़ है हिंद पर!

‘December Ka Mahine Mujhe Aakhri Nahi Lagta’ by Nirmala Garg

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