इंसान के पास ऐसा क्या है जिसके नाम पर वह स्वयं को धरती का सबसे श्रेष्ठ प्राणी मानता है। यहाँ तक कि आने वाले साइबोर्ग और ऐंड्रायड को भी अपने से बेहतर मानने से हिचकता है। ‘सेपियन्स’ पुस्तक के लेखक नोआ हरारी की मानें तो वह कुछ और नहीं हमारी कल्पना करने की क्षमता और सहयोग की आदत ही है। वह बुद्धि नहीं है क्यूँकि वह तो निएन्डरथल के पास हमसे ज्यादा थी। वह बाहुबल तो बिल्कुल नहीं है क्यूंकि वह मशीनों के पास ज्यादा है। लेखक भविष्य में सेपियन्स के वर्चस्व को डिगता हुआ देखते हैं। लेकिन पुस्तक 2011 में लिखी गयी है तो वह कृत्रिम बुद्धिमत्ता के भयावह रूप को तब तक देखे नहीं थे इसलिए केवल संकेत ही किया है।
लेखक ने सेपियन्स के इतिहास की पड़ताल की है जो लाखों वर्ष पीछे तक जाती है। इस पड़ताल में तथ्य, कल्पना व अन्तर्दृष्टि का अच्छा खासा मेल दिखता है जो काफी रोचक ढंग से किया गया है। हालांकि कई बातों की पुनरावृत्ति भी की गयी हैं लेकिन उनको दोहराना कई जगह जरूरी भी था।

मेरे लिए यह काफी नई जानकारियाँ लेकर आयी लेकिन साथ ही मुझे लेखक का दृष्टिकोण कई जगह यूरोप केन्द्रित व भारत के प्रति उपेक्षा वाला लगा। भारत यद्यपि दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक का घर रहा है किंतु लेखक ने अपने प्राचीन काल के विश्लेषण में भारत के संदर्भ कम ही लिये है। जैसे कृषि के साक्ष्यों के संदर्भ में, लिपियों के विकास के संदर्भ में, प्राचीन साम्राज्यों में मौर्यो के संदर्भ में, सिक्कों के इतिहास के संदर्भ में भारत गायब रहता है जबकि भारतीय जाति व्यवस्था के लिए लेखक ने कई पेज दिये हैं ( आर्यन आक्रमण सिद्धान्त के तड़के के साथ) । इसका कारण लेखक का अज्ञान नहीं बल्कि चयन ही माना जा सकता है। दूसरा अंग्रेजी साम्राज्य को भारत के लिए वरदान की तरह बताने का प्रयास वही पुराने तर्कों रेल, कानून व्यवस्था, शांति, व्यापार, आधुनिक मूल्य, राजनैतिक एकता के द्वारा बताने का प्रयास किया है।
यह भी देखना होगा कि पुस्तक में विशेष जोर देते हुए संख्याओं की खोज का श्रेय भारत को दिया गया है जबकि सामान्यतः इसे अरबों की खोज माना जाता है। केवल भारत में ही शेष बचे (पहले पूरी दुनिया में था) बहुदेववाद की अवधारणा को भी अच्छे से समझाने का प्रयास है जबकि सामान्यतः उसे पश्चिमी दृष्टि वाले लेखक बुरा भला कहते रहे हैं। इसलिए पक्षपात का आरोप लेखक पर नहीं लगाया जा सकता है।
जब वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद को सही ठहराते हैं तो वह “ग्रेट बंगाल फेमिन” की भी चर्चा करते हैं। और साथ ही साम्राज्य का केवल भारत ही नहीं पूरी दुनिया के भूमण्डलीकरण (ग्लोबलाइजेशन) का पहला कारक बताते हैं। अगले कारकों में वह मुद्रा, औद्योगिक वैज्ञानिक क्रांति व प्रसारवादी मजहबों को देखते हैं। अगर उपनिवेशवाद आज दुनिया की सच्चाई न होता तो सम्भवत: हम भूमण्डलीकरण की कोई दूसरी प्रक्रिया देख सकते थे लेकिन वर्तमान में यही सच है।
वह वर्तमान के नव औपनिवेशीकरण के शस्त्र Milatary Industrial-academic Complex को भी इसी दृष्टि से देखते हैं और पर्यावरण के क्षरण व परिवार, धर्म, जाति जैसी सामाजिक संरचनाओ की टूटन को भी । वह मेमेटिक्स व उत्तर आधुनिकतावादी मुहावरों के प्रयोग से कहते है कि कुछ चीज बस उभरती है और वह उसी प्रकार अपनी उत्तरजीविता के संघर्ष में लग जाती है जैसे कोई जीवित प्राणी हो और अपनी प्रासंगिकता खोने पर लुप्त हो जाती है। युद्ध, साम्राज्य, जाति, सम्प्रदाय, परिवार, उद्योग, शायद सब कुछ। कुछ अच्छा या खराब नहीं होता, केवल उपस्थित या अनुपस्थित, प्रासंगिक या कम प्रासंगिक ही तो है।
हाँ, प्रत्येक काल में प्रत्येक व्यवस्था किसी न किसी के शोषण पर बनी रही है जिससे लेखक ने इंकार नहीं किया है बल्कि मनुष्य की श्रेष्ठता व उसकी शोषण की प्रवृत्ति के संबन्ध खोजे हैं। मानव ने हर चीज का किस प्रकार का शस्त्रीकरण (weaponiza) किया है, उस वर्णन को पढ़कर मानव जाति पर गर्व का भाव गायब भी हो सकता है। पारिस्थितिकीय असंतुलन और जलवायु परिवर्तन पर थोप दी जाने वाली बहुत सी घटनाओं को लेखक ने सेपियन्स के साथ जोड़ा है। अनेक सभ्यताओं के उजाड़ और नरसंहार को मानव से जोड़ा है। कृषि क्रांति, संज्ञानात्मक क्रांति, औद्योगिक क्रांति और सूचना क्रांति के युग तक मानव कभी भी शांत जीव नहीं रहा है।
मानव ने अपनी तात्कालिक समस्या कम करने की प्रक्रिया में लगातार नयी समस्याओं के द्वारा खोले हैं और इसी प्रक्रिया को उद्विकास कहा जाता है। लगातार मानव संज्ञानात्मक असंगति (cognitive dissonance) में रहा है और आज भी अपने उद्देश्य, कार्य और ज्ञान की असंगति से जूझ रहा है। हिंदी के प्रख्यात लेखक जय शंकर प्रसाद ने अपनी कालजयी रचना ‘कामायनी’ में इसको स्पष्ट करते हुए लिखा है-
ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न हैं,
इच्छा क्यों पूरी हो मन की,
एक दूसरे से मिल ना सकें,
यह बिडम्बना है जीवन की
इस असंगति से बचाव के लिए Go vegan जैसे भाव भी आपके भीतर पुस्तक पढ़कर उपज सकते हैं [ भाव के टिकाऊ होने की गारंटी नहीं है]। अभी तक इस असंगति को दूर करने का कार्य आस्था या मजहब को सौंपा गया था । लेखक ने यहाँ आस्था को विस्तृत अर्थ में लेकर अच्छा कार्य किया है। वह आस्था को केवल ईश्वर या मजहब / सम्प्रदाय से नहीं विचारधारा न उसके प्रेरकों से जोड़ते हैं तथा उदारवाद, बाजारवाद, साम्यवाद, नास्तिकता आदि के आस्थावानों को भी शामिल करते हैं।
वह इन आस्थाओं को तथा व्यवस्थाओं को ‘अन्तर आत्मनिष्ठ सत्य’ [Inter subjective truth] के रूप में परिभाषित करते हैं जो आत्मनिष्ठ व व्यक्तिनिष्ठ से अलग अवधारणा है। यहाँ एक आदर्श साम्यवादी समाज, रामराज्य, खिलाफत या पूर्ण बाजार की शक्तियों से संचालित व्यवस्था सत्य मानी जाती है क्योंकि उसमें एक व्यापक विश्वास है। वह विश्वास उस व्यवस्था को सत्य बनाता है भले ही उसका अस्तित्व केवल सबकी की सम्मिलित कल्पना मात्र में हो।
पुस्तक भले ही निराशावादी विचार से ओतप्रोत लगती है और मानव की श्रेष्ठता संन्थि को ललकारने वाली है किन्तु अंततः यह बताती है कि “दुनिया भरोसे पर चल रही हैं।” यह भरोसा एक दूसरे पर, व्यवस्था पर और एक उज्जवल साझा भविष्य पर है।
यहाँ अनुवादक एवं लेखक श्री मदन सोनी जी की भी सराहना करनी पडेगी जिन्होंने ऐसा अनुवाद किया है कि यह हिन्दी की मौलिक रचना सी ही मालूम पड़ती है। हालांकि India का अनुवाद लगभग सभी जगह ‘हिन्दुस्तान’ किया गया है जिसका कारण मुझे तो समझ नहीं आया। इसके अलावा एक बार आने वाले शब्द “पैसा” की जगह “मुद्रा” होना चाहिए था (ऐसा मुझे लगा) क्यूँकि वह Currency के अर्थ में लिया गया है।
पुस्तक अन्तर्राष्ट्रीय बेस्ट सेलर है और अपने विशेषण को चरित्रार्थ भी करती है। 450 पेज पढ़ना आसान तो नहीं था लेकिन रोचक जरूर था। पढ़ते रहिए, सीखते रहिए।
सेपियंस
लेखक: युवाल नोआ हरारी
अनुवादक: मदन सोनी।
Sapiens: A Brief History of Humankind
Book Review By: Aarushi