समीक्षा: ड्रैगन्स गेम

भारतीय जमीन पर चीन व पाकिस्तान के खतरनाक मंसूबों के साथ उतरे पाकिस्तानी जिहादी और चीनी जासूसों की कार्यविधि को लेकर यह उपन्यास लिखा गया है। यह उपन्यास अंतरराष्ट्रीय राजनीति के घरेलू प्रभाव और घरेलू अव्यवस्था के अंतरराष्ट्रीय व सामरिक प्रभावों को समझने में पर्याप्त सहायक है। कैसे एक देश की आंतरिक शांति वैश्विक व्यवस्था को आतंकित कर सकती और कैसे वैश्विक शक्ति संघर्ष किसी देश को युद्ध में धकेल सकता है, ये पुस्तक से समझा जा सकता है? कथावस्तु चूंकि जासूसी दुनिया की है तो भारत के खात्मे का षड्यंत्र बनने और उस पर भारतीय प्रतिक्रिया को ही लेखक ने दिखाया है जहां जासूसी दुनिया का ‘by hook or by crook’ वाला एथिक्स लागू होता है।
लेखक ने यह समझने और कहने की हिम्मत की है कि आंदोलनजीविता व wokeism भी किस प्रकार विनाश के पथ पर ले जाने में सक्षम है विशेषतः जब यह किसी बाह्य देश के धन, विचारधारा, लॉजिस्टिक सपोर्ट से संचालित हो जैसा कि बहुत बार देखा गया है। वह बताते हैं कि एक राष्ट्र या विश्व की संरचना में शक्ति केवल राजनैतिक संरचना में निहित नहीं होती। वह कॉरपोरेट, कला, साहित्य, भीड़, NGO, मीडिया जैसे कई गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा भी व्यापक रूप से न सिर्फ प्रभावित होती है, बल्कि उनसे संचालित होती है। वह दिखाते हैं कि ‘there is nothing about empowerment of any identity, it is about getting power in the name of identity’. हर सामाजिक आंदोलन अंततः कैसे राजनीतिक हो जाता है, उस प्रक्रिया को यह किताब समझती है; अगर रणविजय के शब्दों में कहा जाए तो “everything is designed nothing by chance“।
अंदर की भारतीयता लेखक से बार-बार कहती है कि भारतीय एजेंसीज का रिस्पांस भी दिखाओ लेकिन वह ज्यादा समय नहीं दिखता, कम ही दिखाई देता है। इसका कारण है इस पूरी जासूसी दुनिया को डेस्क जॉब एजेंट के नजरिए से दिखाया गया है या फिर जासूसी फिल्मों में जासूसों को ओवर स्मार्ट देखने की आदत बहुत ज्यादा हो चुकी है हमको। इसलिए यदि आप जेम्स बांड जैसे एक्शन दिखाने वाले फील्ड एजेंट या शेर्लोक होम्स जैसे अत्यधिक स्मार्ट जासूस के फैन है तो आपको इस पुस्तक के जासूस बहुत अलग लग सकते हैं क्योंकि यहां जासूसी को देखने का नजरिया ही दूसरा है। यह धूम 3 जैसा मामला है जहां सब कुछ है, फिल्म भी हिट है, लेकिन चोरी देखने गया दर्शक चोरी का एक्जीक्यूटन नहीं देख पाता। इसका कारण है एक विस्तृत और पर्याप्त संभावना वाले कथानक को केवल 208 पेज में समेटने का प्रयास। रणविजय ने यही किया है जिस कारण बहुत सारी घटनाएं और कुछ चरित्र जरूरत से कम स्थान पाते हैं और कई आवश्यक चीजों की सूचना मात्र मिलती है कि “फलां कार्य हो गया”। जिन लोगों की उपन्यास पढ़ने की गति तेज होती है, उनको यह उपन्यास इस विशेष कारण से भी पसंद आने वाला है। लेखक ने सामान्यतः प्रयोग की जाने वाली एक तकनीक प्रयोग नहीं की है जो जासूसी कहानियों में प्रयोग की जाती है। वह तकनीक है – “द्वंद”। यहां खेल कभी एक पक्ष में कभी दूसरे पक्ष में नहीं जाता जो पाठक को पंप करे, बल्कि यह एक तरफा चीन की विजय दिखाता है जो पाठक के माथे में चिंता के बल डालने का कार्य करता है।

चरित्र चित्रण में सर्वाधिक उभरकर आया चरित्र वेंग व उसकी सिगरेट का है। वेंग का प्रत्येक कैमियो किसी साउथ फिल्म के सुपर स्टार की तरह सिगरेट के धुएं के बिल्ड अप से होता है और यह प्रयोग मेरे लिए बहुत कारगर रहा। आपको पढ़ते हुए लगता है कि कोई वास्तव में दमदार किरदार है। ली चेंग व सभी जासूसों का किरदार पर्याप्त समय लेकर विकसित होता है लेकिन भारतीय पात्र सामान्यतः कम स्थान पा सके हैं इस कारण उपन्यास के नायक का निर्धारण भी कठिन हो जाता है। हालांकि उपन्यासों में नायक खोजने का मेरा कोई ओबसेशन नहीं है और बहुत से उपन्यास बिना नायक के भी होते हैं या फिर हम कह सकते हैं कि यह इस श्रृंखला की पहली पुस्तक मात्र है और हमको अगले पार्ट का इंतजार करना है।

भाषा एवं शैली की बात की जाए तो अपनी पिछली दो पुस्तकों की तरह ही रणविजय ने यहां भी कथानक के अनुरूप साहित्यिक भाषा का प्रयोग किया है। पाकिस्तानी व चीनी पात्र भी हिंदी बोलते हैं तो निश्चित रूप से अजीब लगता है किंतु यह लेखक की कमी बिल्कुल नहीं कही जा सकती बल्कि यह पाठकों की सीमा है क्योंकि हम हिंदी, अंग्रेजी और कुछ अन्य भारतीय भाषाओं तक ही सीमित हैं। कहानी संवादों की बजाय नरेशन के रूप में ज्यादा आगे बढ़ी है इसलिए कई जगह वर्णन दिखता है और संवाद कम। पाठक उन दृश्यों में स्वयं को चरित्रों से जोड़कर जो रस प्राप्त कर सकता था, उस से वंचित रह जाता है। सरकारी बाबू की जरूरत से ज्यादा इंफॉर्मेशन बॉम्बर्डिंग एक जगह मुझे समझ नहीं आई, कहानी 2012 में चल रही होती है और वो 2019 तक का डाटा दे देते हैं और पुनः कहानी 2012 में आ जाती हैं। या तो वे वहां पर डाटा ना देते या फिर तिथि ना देते। कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगा लेकिन पुस्तक की गति यह कमी खटकने नहीं देती।

पुस्तक पढ़ते हुए आपको पता चलेगा कि यह पुस्तक पर्याप्त रिसर्च और ज्ञान की पृष्ठभूमि में लिखी गई है क्योंकि भारतीय इतिहास के बहुत से वास्तविक घटनाक्रमों को जोड़कर यह कथानक रचा गया। यदि यह उपन्यास इतना रिसर्च करके न लिखा गया होता तो मैं शिकायत नहीं करती लेकिन अभी शिकायत करना बनता है। विदेश सचिव और भारतीय आर्मी जनरल के द्वारा कहे गए कुछ संवाद मेरी दृष्टि में तथ्य के रूप में पूरी तरह सही नहीं है पर यह एक फिक्शन है इसलिए इसको उपन्यास की कमी न मानकर कथानक की मांग माना जाए। कथानक से केवल दो समस्याएं दिखती हैं। पाकिस्तानी ब्रेनवास किया हुआ इस्लाम से ऑब्सेस्ड मुसलमान एजेंट भारत में आकर शराब पीने में नैतिक द्वंद अनुभव करता है किंतु अगली ही पंक्ति में वह “झटका व हलाल” गोश्त का द्वंद नहीं महसूस करता है जो थोड़ा अस्वाभाविक लगता है। या तो वह दोनों में असहज होता या दोनों में नहीं होता क्योंकि उसकी गहन ट्रेनिंग की बात पुस्तक में की गई है। इसके अलावा पाकिस्तान के बेस्ट एजेंट को यह न पता होना कि पाकिस्तान की बेस्ट मिसाइल भारत के कितने हिस्सों कवर करती हैं, पचता नहीं है। भारतीय खुफिया संस्थाओं के बीच दिखाया समन्वय का अभाव प्लॉट होल नहीं माना जा सकता है क्योंकी ऐसी रिपोर्ट कई बार सामने आती हैं जो भारतीय खुफिया एजेंसियों के समन्वय के अभाव को दिखाती हैं। बल्कि यह कहानी को और ज्यादा यथार्थ के निकट लेकर जाता है।

यह पुस्तक मेरी तरफ से पूरी तरह अनुसंशित है, यदि आप केवल मनोवैज्ञानिक लेखन पढ़ते हैं तब भी, क्योंकि यह मास साइकोलॉजी को बदलने वाले खेल को दिखाती है। अंत में इतना ही कहा जा सकता है कि यह एक “the unending game” है जैसा कि विक्रम सूद ने लिखा है और इस game पर श्रृंखला लिखी जा सकती है। इस पुस्तक में भी एक सफल श्रृंखला बनने की क्षमता है।

अगर मैं सही हूँ तो इस कहानी में चीन द्वारा भारतीय सेना में प्लांट करवाए गए 5 लोग कोई बेवजह की पार्श्व कहानी नहीं, अगली कहानी का आधार हैं। अगर मेरा अनुमान सही है, तो इस पुस्तक के साथ लेखक को अगली पुस्तक के लिए भी शुभकामनाएं।

इंतजार रहेगा।

‘Dragon’s Game’ Hindi Book Reviewed By Aarushi

 

लेखक:- Ran Vijay
पृष्ठ संख्या: 208
प्रकाशक: हिंदयुग्म

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