क़िस्सों की ज़रूरत और उनके पीछे झाँकती खिलंदड़ मुस्कान: जूलिया रॉबर्ट्स

कहानी में नाटकीयता की अवधारणा को लेकर हॉलीवुड ने अपने सिनेमा को शिखर तक पहुंचाया है। ‘ड्रामा’ शब्द में जो मंतव्य छुपा हुआ है वही कहानी और अभिनय को लेकर प्रयुक्त हुआ। माने सबकुछ ‘नकली’ कुछ भी असली नहीं या दूसरे अर्थों में ‘सच के जैसा आभास कराता हुआ’। महान फ्रांसीसी निर्देशक ज्यां लुक गोदार ने कहा था कि सिनेमा दुनिया का सबसे खूबसूरत धोखा है। सिनेमा भ्रम रचता है और यही भ्रम उसकी असली ताक़त है। जहां एक ओर अभिनय से लेकर निर्देशन तक और कहानी से लेकर पटकथा तक कथा कहने की कई धाराएँ विकसित हुई वहीं जनता के सिनेमा को लेकर फ़िल्मकार शुरू से एकमत रहे और वो था ‘पैसा वसूल होना’। हॉलीवुड ने इस सच्चाई को बहुत पहले ही भाँप लिया था और अपने सिनेमा को उसी तरह बनाया जिसे जनता देखना चाहे। भारत में इसे मसाला सिनेमा कहा गया और ‘बॉलीवुड’ इसी तर्ज पर अपना उद्योग बना पाया। हालांकि, इसके रचनात्मक पक्ष को हमेशा से हाशिये पर रखा गया और यहीं नकल के मामले में हमसे गलती हुई। दरअसल, पैसा वसूल के चक्कर में उसी गाय (सिनेमा) को गलत ढंग से दुह लिया गया जिससे ज़माने की पूर्ति होती थी। हॉलीवुड ने अपने समाज को हर तरह की कहानी देखना सिखाया। हम न केवल नैतिकता के चक्कर में रहे बल्कि सही-गलत, अच्छे-बुरे, पक्ष-विपक्ष के अपने-अपने मापदण्डों से कोई पैमाना ही स्थापित न कर पाये। ‘पद्मावती’ का उदाहरण हमारे सामने है। सुनने में तो यह भी आया है कि टीवी पर चल रहे एक कॉमेडी शो में किसी प्रतिभागी को मिमिक्री करने से भी रोका गया। कला को ‘कला’ की तरह न लेकर उसे ‘काला’ कर दिया गया है। सबके अपने-अपने तर्क हैं और हर व्यक्ति सीमा पार कर के लक्ष्मण रेखा में रहने की हिदायत दे रहा है। 

बहरहाल, बात हॉलीवुड की उस कार्यप्रणाली की है जिसने अपने सिनेमा को कहानी के वर्गीकरण यानि जॉनर दिये। रॉम-कॉम यानि रोमेंटिक कॉमेडी न केवल हॉलीवुड बल्कि विश्व सिनेमा में एक सम्मान्य और स्वीकार्य जॉनर है, बॉलीवुड को छोड़कर जहां ‘पैसा वसूल’ के चक्कर ने अस्सी और नब्बे के दशक में हिन्दी सिनेमा को घटिया फ़िल्मों की सौगात दी। और जिसके कारण कॉमेडी को कमतर ही समझा गया। हालांकि, राजू हिरानी ने यह परंपरा बदल कर रख दी। बहरहाल, अवाम की समझ के सिनेमा को पूरी दुनिया में हाथों हाथ ही लिया गया और जिसने सिनेमा को न केवल प्रोफ़ेशन का दर्जा दिलाया बल्कि उसमें काम करने वाले अभिनेता/अभिनेत्रियों को सर-माथे पर बिठाया। जूलिया रॉबर्ट्स ऐसी ही एक अभिनेत्री है जिनके काम और क़द ने पूरी दुनिया को उनका मुरीद बनाया। ‘रॉम-कॉम’ की पसंदीदा अभिनेत्री आज अपना जन्मदिन मना रही है।

विश्व की सबसे ख़ूबसूरत महिलाओं में शामिल की गई जूलिया का चेहरा सही मायनों में एक ‘नट’ का चेहरा लगता है। उनकी तसवीरों और फ़िल्मों में अदाकारी को देख कर ये भरोसा करना मुश्किल है कि इस चेहरे के पीछे ज़ेहन में क्या चल रहा होगा? एक तरह की ‘एक्स्टेंट्रिसिटी’ या तात्कालिकता ही जूलिया के अभिनय का केंद्र बिन्दु है। बिलकुल उनकी अपनी ज़िंदगी की तरह जहां पर वे एकदम हतप्रभ कर देने वाली हरकतें या फ़ैसले करती रही हैं या जीती रही हैं। अमेरिका के स्मिरना, जॉर्जिया में 28 अक्टूबर 1967 को पैदा हुई जूलिया ने तमाम परंपरागत ईसाई रिवाज़ों के बावजूद विद्रोह को ही अपना साथी बनाया। बचपन में माता-पिता के अलगाव को देखा और फिर स्कूल तक वेटरनरी डॉक्टर बनने का ख़्वाब पाला। उनके माता-पिता अभिनय शिक्षक थे जिनका एक प्रशिक्षण केंद्र था। अभिनय बेहद शुरुआत में ही शायद उनकी रगों में आ गया होगा। जल्द ही उन्हें अपने असाधारणपन का आभास हुआ और फिर अभिनय की मंज़िल तक का सफ़र तय करने में उन्हें देर न लगी। शुरुआत टेलीविज़न सीरियल्स से हुई। जानकारी का छोटा हिसाब यह समझने के लिए काफ़ी है कि जूलिया की इस यात्रा का आरंभ कहाँ से है और उनके व्यक्तित्व का नैसर्गिक तरल उलझन, बेचैनी, बचपन के अनुभव और अपने आसपास चल रहे ‘ड्रामे’ से ही फूटता है। जूलिया ने शायद यहीं से अपने भीतर की अभिनेत्री को पहचाना होगा और फिर उसे उन किरदारों से जीवंत किया जो उनकी पहचान को पुख्ता कर सके। वही किरदार जिन्हें अभिनीत कर जूलिया ने अमेरिका से लेकर दुनिया के हज़ारों सिनेमा प्रेमियों को अपना मुरीद बनाया।

Julia Roberts

Julia Fiona Roberts (born October 28, 1967) is an American actress and producer. She established herself as a leading lady in Hollywood after headlining the romantic comedy film Pretty Woman (1990), which grossed $464million worldwide.

यक़ीनन जूलिया रॉबर्ट्स के नाम के साथ ही सिनेमा प्रेमियों के चेहरे पर एक रहस्यमयी मुस्कान ही तैरती होगी और ज़ेहन में उस लड़की की छवि जो ज़िद्दी, थोड़ी तुनक मिज़ाज, आवारा, मासूम और बातूनी है। जो अपनी हरकतों से किसी के लिए भी मुसीबत बन सकती है और एक पल में कुछ से कुछ हो जाती है। वहीं उसकी आँखों की शरारत पल में घायल भी कर सकती है और आकर्षण के बावजूद अपने आसपास बिना इजाज़त फटकने भी नहीं देती। उसकी इच्छाशक्ति इतनी मज़बूत भी कि दुनिया के तमाम क़िस्सों-कहानियों की अगुआई करने वाले स्त्री चरित्र उसके वजूद में शामिल हों। जूलिया के सम्प्रेषण और किरदार का यह जादू ‘प्रिटी वुमन’, ‘नॉटिंग हिल’, ‘रनअवे ब्राइड’, ‘ओशन इलेवन’, ‘मोनालिसा स्माइल’, ‘माय बेस्ट फ्रेंड्स वेडिंग’, ‘स्लीपिंग विद द एनीमी’, ‘ऑगस्ट: ओसेज काउंटी’, ‘मिस्टिक पिज़्ज़ा’, ‘हुक’ जैसी फ़िल्मों में दिखता है। इन सभी फ़िल्मों में जो एक चीज़ दिखाई देती है वो है जूलिया का मस्त-मलंग व्यक्तित्व। यह अभिनय की ‘मेथड’ से अलग ज़रूर नज़र आता है पर दर्शक की आँख से बचता नहीं। खिलंदड़ और बेलौस अंदाज़ जिसे किसी भी परिस्थिति में कोई परवाह ही नहीं सिवाय ख़ुद के। उनकी हँसी में वही सुनाई भी देता है। ‘मिस्टिक पिज़्ज़ा’ के डेज़ी के किरदार वाली जूलिया हिन्दी सिनेमा में शायद पूजा भट्ट की ‘इन्स्पिरेशन’ रही होगी जिनके खुले बालों वाले ‘लुक’ ने अलग ही हलचल मचाई थी। बाक़ी की फ़िल्मों में भी जूलिया अपने इर्द-गिर्द एक आभामण्डल ही रचती हैं। ‘प्रिटी वुमन’ तो ख़ैर जूलिया की पहचान है ही लेकिन व्यक्तिगत तौर पर मुझे ‘क्लोज़र’ के फ़ोटोग्राफर, ‘नॉटिंग हिल’ की एना और ‘मोनालिसा स्माइल’ की टीचर वाला किरदार बेहद पसंद है। मगर ‘एरिन ब्रोकोविच’ और ‘ईट प्रे लव’ के बग़ैर जूलिया रॉबर्ट्स की पहचान मुक़म्मल नहीं होती। हॉलीवुड में यूं भी रोड मूवीज़ का प्रचलन है उस पर ‘ईट प्रे लव’ ने बतौर शख़्सियत जूलिया के हिन्दू धर्म के प्रति आस्था पर मुहर लगाई थी। यह भी एक अलग मुद्दा है कि दुनिया को अपनी मुस्कान से प्रभावित करने वाली जूलिया ने धर्म के प्रति कैसे अलग अहसास महसूस किया?

जूलिया रॉबर्ट्स, हॉलीवुड का एक बीता हुआ समय है पर उनका काम अब भी जारी है। उनके काम में उतना ही अभिनय दिखाई देता है जितनी ज़रूरत उस कहानी को है। विश्व सिनेमा में जूलिया रॉबर्ट्स की हैसियत को कितना आँका जा सकता है, यह तो समीक्षक तय करेंगे पर सिनेमा प्रेमी के नज़रिये से मुझे वह एंजेलिना जोली के बाद सबसे प्रिय हैं। रंगमंच पर जो अभिनय किया जाता है, उस तकनीक का इस्तेमाल मुझे जूलिया की सबसे बड़ी ख़ासियत लगती है, जिसकी एनर्जी बहुत ही कमाल होती है। ऐसा लगता है कि वह अपने किरदार से खेल रही हैं। बिलकुल उनकी अपनी बिंदास ज़िंदगी की तरह।

सिनेमा की छवियों में क़ैद किरदार कैसे एक अभिनेता की वास्तविक ज़िंदगी को प्रभावित करते होंगे, यह अनुभव की बात है। जूलिया का अपना व्यक्तित्व उन किरदारों में भी कहीं न कहीं समाया होगा ही। यही कहानियों की और कला की ख़ूबी है। चाहे-अनचाहे वह अपना रंग छोड़ ही जाती हैं। बतौर दर्शक हमारे पास उसे जीने का और महसूस करने का हुनर भी होना चाहिए। उम्र के पचासवें पड़ाव पर जूलिया अपने जिए हुए किरदारों में अपने छूटे हुए समय को ढूँढ रही होगी। और अपने जीवन में उन किरदारों के संवाद शायद उन्हें यह बता रहे होंगे कि कल्पनाएँ भी सच का ही हिस्सा होती हैं। क़िस्सों-कहानियों के ज़रिये ही दुनिया आबाद रही है, ये हम सबकी समझ में जितनी जल्दी आ जाए तो बेहतर।


सुदीप सोहनी की अन्य रचनाएँ।

Julia Roberts, Mystic Pizza, Steel Magnolias, Pretty Woman, Sleeping with the Enemy, The Pelican Brief, My Best Friend’s Wedding, Ocean’s Twelve, Charlie Wilson’s War, Valentine’s Day, Eat Pray Love

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