अपराध-बोध – पूनम सोनछात्रा


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यूँ तो मैं ताउम्र लेटलतीफ ही रही

मेरी सहेलियों ने कभी भी कहीं भी आने के लिए
मुझे हमेशा तयशुदा वक़्त से
आधे घंटे पहले का वक़्त बताया
हर सुबह स्कूल की बस पकड़ना
मेरे लिए दिन की पहली जंग जीतने जैसा ही है
और तो और वापसी की बस भी
मैं हर रोज़ लगभग दौड़ते हुए ही पकड़ती हूँ

जाने कितनी ट्रेनें मैंने आख़िरी सीटी पर पकड़ी
(शुक्र है कोई छूटी नहीं)
लेकिन फ्लाइट मिस करने का दाग़
हमेशा मेरे मेरे माथे पर सुसज्जित रहेगा

हर काम दौड़ते-भागते आख़िरी क्षण में करना

लेकिन मैं आश्चर्य में हूँ
जाने कैसे मुझे पैदा होने की इतनी जल्दी रही
पाँच भाई-बहनों में सबसे पहली

और तो और
घर की सबसे बड़ी… सबसे पहली बहू

इतनी बड़ी
कि तोड़ सकूँ अपने सपने
कि छोड़ सकूँ अपनी इच्छाएँ
कि ख़त्म कर सकूँ अपनी ज़रूरतें
कि भुला सकूँ अपना अस्तित्व

मेरी माँ और सास ने मुझे सिखाया
‘काम भले ही देर से शुरू हो
लेकिन समय पर ख़त्म होना चाहिए’

कोई नहीं देखना चाहता
कि दूसरा काम देर से इसलिए शुरू हुआ
क्योंकि पहला काम किया जा रहा था
और कामों की फेहरिस्त में
हर एक काम पहला ही है

जीवन की प्राथमिकताएँ निर्धारित करते हुए
मैंने अपने-आप को सबसे निचले दर्जे पर रखा

एक आदर्श बेटी और बहू बनने की ज़िद ने
मुझे एक लेटलतीफ इंसान के तमगे के साथ-साथ
एक चीज़ और दी है

अपराध-बोध

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