ऊषा सुनहले तीर बरसती, जयलक्ष्मी-सी उदित हुई। उधर पराजित काल रात्रि भी जल में अतंर्निहित हुई।वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से। वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में, शरद-विकास नये सिर से।नव कोमल आलोक बिखरता, हिम-संसृति पर भर अनुराग। सित सरोज पर क्रीड़ा करता, जैसे मधुमय पिंग पराग।धीरे-धीरे हिम-आच्छादन, हटने लगा धरातल से। जगीं वनस्पतियाँ अलसाई, मुख धोतीं शीतल जल से।नेत्र निमीलन करती मानों, प्रकृति प्रबुद्ध लगी होने। जलधि लहरियों की अँगड़ाई, बार-बार जाती सोने।सिंधुसेज पर धरा वधू अब, तनिक संकुचित बैठी-सी। प्रलय निशा की हलचल स्मृति में, मान किये सी ऐठीं-सी।देखा मनु ने वह अतिरंजित, विजन का नव एकांत। जैसे कोलाहल सोया हो हिम-शीतल-जड़ता-सा श्रांत। इंद्रनीलमणि महा चषक था, वह विराट था हेम घोलता, “विश्वदेव, सविता या पूषा, किसका था भू-भंग प्रलय-सा, विकल हुआ सा काँप रहा था, देव न थे हम और न ये हैं, “महानील इस परम व्योम में, छिप जाते हैं और निकलते, सिर नीचा कर किसकी सत्ता, हे अनंत रमणीय कौन तुम? हे विराट! हे विश्वदेव! “यह क्या मधुर स्वप्न-सी झिलमिल यह कितनी स्पृहणीय बन गई, जीवन-जीवन की पुकार है, मैं हूँ, यह वरदान सदृश क्यों, यह संकेत कर रही सत्ता, तो फिर क्या मैं जिऊँ, एक यवनिका हटी, स्वर्ण शालियों की कलमें थीं, विश्व-कल्पना-सा ऊँचा वह, अचल हिमालय का शोभनतम, उमड़ रही जिसके चरणों में, उस असीम नीले अंचल में, शिला-संधियों में टकरा कर, संध्या-घनमाला की सुंदर, विश्व-मौन, गौरव, महत्त्व की, वह अनंत नीलिमा व्योम की, उसे दिखाती जगती का सुख, थी अंनत की गोद सदृश जो, पहला संचित अग्नि जल रहा, जलने लगा निरंतर उनका, सज़ग हुई फिर से सुर-संकृति, |
![]() नन्हें पत्थरों में आकृतियाँ तलाश कर उन्हें कलाकृतियों में तब्दील कर देना अनिता दुबे का पुराना पैशन है। अपने भीतर के कवि, कहानीकार पक्ष से अधिक अपने इस अनूठे आर्ट को जुनून की तरह तरजीह देते हुए आज उन्होंने एक अलग पहचान हासिल की है। इस अनूठे कैलेंडर में उन्होंने छायावाद से लेकर समकालीन कविताओं तक को अपनी प्रस्तर कला का रूप दिया है। कैलेंडर हिन्दगी डॉट कॉम पर उपलब्ध है। कैलेंडर हिन्दगी डॉट कॉम पर उपलब्ध है। |
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