एक ना-मुक़म्मल बयान

तारीख़ें.. कुछ तारीख़ें चीख होती हैं वक़्त के जिस्म से उठती हुई… कि मुझे सुनो, मैंने क्या खोया है तुम्हारे इस बे-मा’नी औ’ बेरुख़ी से भरे सफ़र में। कुछ तारीख़ें फूल होती हैं जिनकी याद भर बस रूह महका जाती हैं। सोचती हूँ मैंने ऐसी कितनी तारीख़ें जमा की हैं जो चीखती हैं देर रात अलमारियों के दराज़ों में रखी कुछ निशानियों में या फिर कितनी ऐसी तारीख़ें जिनकी याद आते ही जिस्म में महक उठती हैं रातरानी।

उन्हीं में से रातरानी की ख़ुशबू लिए एक तारीख़ है वह चिट्ठी जो आज पुरानी डायरी की खोह में मिली, एक धुँधला सा नाम जो लगभग मिट गया था वक़्त की बेरुख़ी से… पर कहीं बीच में लिखा था कि

“हम नदी के दो किनारे नहीं हैं साहिबा! हम आँख और पानी हैं, आँखों को दर्द होगा तो पानी का बहना लाज़मी हो जाएगा लेकिन आँसुओं का ग़म कौन समझता है जब वे आँख से जुदा हो किसी दामन पर, किसी तकिये के ग़िलाफ़ पर मुर्दा से जम जाते हैं… पर मैं समझता हूँ, क्योंकि मैंने तुम्हारे होंठों पर गिरते आँसुओं के नमक की गर्मी ब-मुश्किल बर्दाश्त की है… मैं तुम्हें चाँद-तारों की मिल्कियत नहीं दे सकता, ना ही सजा सकता हूँ तुम्हें सोलहों शृंगारों में…पर जानता हूँ, मेरे अदने से ख़्याल भर से तुम्हारे रुख़सार पर सोलह चाँद की ख़ूबसूरती कामिल हो सकती है।”

कभी-कभी सोचती हूँ कि किसी क़ैस को ही पत्थर क्यों खाने पड़े? क्यों कोई राँझा इश्क़ की फ़क़ीरी में गाता मारा गया? क्यों कोई लैला या हीर जान देने से पहले नज़्द* में ग़ज़ल-ख़्वाँ* हो उफ़ुक* के सूरज सी नदी की बाहों में ना ढली? मोहब्बत ख़ून क्यों माँगती है? क्योंकि, मोहब्बत को लाल रंग के घेरे में बाँध खड़ा कर दिया गया है पत्थर खाने को? गर ऐसा है तो मोहब्बत के रंग बदल देने चाहिए… इश्क़ की हथेलियों पर लगी हिना नौरंगी होनी चाहिए… दुनिया के सारे रंग के फूल मोहब्बत के दामन में उगने चाहिए…

“तुम अगली चिट्ठी में लिखना कि किसी और के साथ ढलती रातों के बाद बिस्तर पर फफोलों सी उगने वाली सिलवटों में मौत के रंग नहीं दिखायी देते होंगे तुम्हें? मैं सोचता भी हूँ तो साँसों की गिनती भूल जाती है ज़िन्दगी और मौत बिलकुल मेरे नज़दीक खड़ी दिख पड़ती है, जिसकी भभकती आँच मैं चेहरे पर महसूस कर सकता हूँ साहिबा! एक ख़लिश नसों में ख़ून के दौरे रोक देती है…ये ना-मुक़म्मल रिश्ते इतने चुभते क्यों हैं साहिबा?”

क्या जवाब दूँ इन सवालों का जो अब तक जिस्म में मवाद की तरह ख़ून के साथ बह रहे हैं, नासूर बन उगते हैं पाँव की सबसे छोटी उँगली पर जो अक्सर चोट खा जाती है कभी दरवाज़े, तो कभी बिस्तर से और नासूर फिर हरा हो उठता है… सोचती हूँ नाख़ूनों से खुरच-खुरच कर अलग कर दूँ पर घाव गर जिस्म पर हो या फिर जिस्म का कोई हिस्सा सड़ा हो तो उसे काट के फेंक भी दिया जाए, पर ज़ख़्म जो साँसों में क़ाबिज़* हो जाएँ, उन्हें कैसे खुरचा जाएँ, कैसे काटा जाएँ?

आह! ख़ुदाया! जानती हूँ मोहब्बत अज़ाब नहीं, ने’मत है लेकिन जब दो लोग मोहब्बत के दो अलग-अलग किनारे हो जाएँ, वक़्त की दो अलग-अलग नदियाँ हो जाएँ तो कौन सी भागीरथी उतरेगी ज़मीन पर किनारों को मिलाने के लिए, कौन सा तीर्थराज उन्हें अपना आँगन देगा मिलने के लिए..कौन सींचेगा अपनी उँगलियों के पोरों से मरी हुई उम्मीदों की कलियाँ और कौन लाएगा संजीवनी ज़िंदा करने उनकी सोयी हुई तमन्नाएँ।

मैं तारीख़ों में क़ैद हो रही हूँ। हर बीतते वक़्त के साथ तारीख़ों की बेड़ियों में कुछ लोहे और जुड़ते जा रहे हैं और जिस्म पर उग रही हैं काले-लाल तिलों की गर्म सलाखें…. जो गोद रही है रूह पर कानफाड़ू चीख वाले दिन-रात और एक ओर रूह के नंगे जिस्म पर चटक रहीं हैं रातरानी सी कुछ तारीख़ें।

ख़ुदाया! इश्क़ करने वालों के नसीब में मातम-ए-उम्मीद* के बदले ज़ेहनी और रूहानी तस्कीन क्यों नहीं लिखता तू? ज़िन्दगी जिसके बग़ैर बे-मसरफ़* लगती हो उसे नसीब की झोली में क्यों नहीं डालता? इश्क़ के कांधे पर दुनिया भर वक़ार* क्यों लाद दिया जाता है… तू ख़ुद मोहब्बत की रहबरी* क्यों नहीं करता मौला?

इससे पहले कि तेरी दुनिया नफ़रत से बेरंगी हो जाए, सियासतें, रिवायतें नोंच कर खा जाएँ इश्क़ के बाशिंदों को, आगे आने वाली पीढ़ियों के आँगन महरूम रह जाएँ उल्फ़त की फुलवारी से, इससे पहले कि उनके ज़ेहन पर नफ़रतों के तेज़ाब ख़ून के प्यासे नाले बना दें… तू आ और सम्भाल अपनी मोहब्बत से वाबस्ता यह दुनिया मालिक!

____________________________________________________
Meanings:
नज़्द*: मजनूँ का शहर
ग़ज़ल-ख़्वाँ*: ग़ज़ल गाते हुए
उफ़ुक*: क्षितिज
क़ाबिज़*: शामिल
मातम-ए-उम्मीद:- आशाओं का शोक
तस्कीन: सन्तुष्टि
बे-मसरफ़: निरुद्देश्य
वक़ार: मर्यादा
रहबरी: मार्गदर्शन

‘Ek Na Muqammal Bayan’ Notes by Neha Vats

Related

पैंतीस बरस का जंगल

उम्र की रौ बदल गई शायद, हम से आगे निकल गई शायद। – वामिक़ जौनपुरी “इतनी लंबी उम्र क्या अकेले गुज़ारोगी? दुनिया क्या कहेगी?” यही सवाल उसकी खिड़की पर टँगे

बालम तेरे झगड़े में रैन गयी…

छुट्टी वाला दिन रागों के नाम होता। कमरे में जगह-जगह रागों के उतार-चढ़ाव बिखरे रहते। मुझे अक्सर लगता अगर हम इन्हीं रागों में बात करते तो दुनिया कितनी सुरीली होती।

मेरी स्मृति से तुम्हारा निर्गमन

पिछले कुछ वक़्त से मैं भूलने लगी हूँ, छोटी-छोटी चीज़ें, छोटी-छोटी बातें, नाम, तारीख़ें। मुझे कभी फ़र्क़ नहीं पड़ा इन बातों से, पर अब भूलने लगी हूँ वे बातें जो

Comments

What do you think?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

instagram: