पिछले कुछ वक़्त से मैं भूलने लगी हूँ, छोटी-छोटी चीज़ें, छोटी-छोटी बातें, नाम, तारीख़ें। मुझे कभी फ़र्क़ नहीं पड़ा इन बातों से, पर अब भूलने लगी हूँ वे बातें जो तुमने मुझसे कही थीं। भूलने लगी हूँ तुम्हारा चेहरा, जैसे धीरे-धीरे किसी दीवार की पपड़ी छूटने लगती है और बदल जाता है दीवार का रंग-रूप, तुम्हारा चेहरा मेरी याददाश्त की दीवार से किसी पपड़ी की तरह झर रहा है, मैं जितना बटोरने की कोशिश करती हूँ वह उतनी ही तेज़ी से झरता जाता है, जैसे रेत मुट्ठी से उतनी ही तेज़ी से फिसलती है जितनी तेज़ पकड़ से हम उसे क़ैद करने की कोशिश करते हैं।
मैं जानती हूँ एक दिन तुम्हारी सारी स्मृतियाँ झर जाएँगी मेरे ज़हन की दीवार से, इसलिए मैं देर रात तक उसकी मरम्मत करने में लगी रहती हूँ, बटोरती हूँ वे सारी बदरंग पपड़ियाँ और नंगे हाथों पर रख अपनी लक़ीरों की खाई में उन पपड़ियों को पाटने की कोशिश करती हूँ…. देर रात जब वक़्त घड़ी की टिकटिक में समा जाता है तो मैं घड़ी बन्द कर के पैर की तरफ़ रख देती हूँ, मैं जानती हूँ कि मेरे घड़ी बन्द कर देने से वक़्त नहीं रुक जाएगा पर मैं एक भरम की चादर ओढ़े वक़्त के बीतने के तनाव से मुक्त हो जाती हूँ, मेरा सारा ध्यान तुम्हारी यादों व तुमसे जुड़ी चीज़ों को बटोरने में लग जाता है। हर रोज़ बटोर रही हूँ थोड़ा-थोड़ा तुम्हें, तुम्हारी हँसी को, तुम्हारी आवाज़ को, तुम्हारी मुस्कुराहट को, तुम्हारी मुझ पर पड़ी हर नज़र की नज़र को, डर रहता है कहीं मुझसे तुम छूट गए तो…… जानते हो मुझे कभी तुम्हारी तस्वीर की ज़रूरत नहीं पड़ी क्योंकि तुम ज़हन से लेकर रूह तक समाये हो मुझमें, पर वक़्त ख़ुदा का सबसे ख़तरनाक कारीगर है, वह यादें गहरी भी कर देता है और धुँधली भी, पर मैं यह भी जानती हूँ कि ज़िन्दगी की आख़िरी साँस तक मुझे तुम्हारी तस्वीर की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
मैं ख़र्च हो रही हूँ धीरे-धीरे तुम्हें कमाने में, तुम्हें बटोरने में…. पहले-पहल मैंने सोचा कि तुम्हें क़ैद कर लूॅं अपनी लिखावटों में, बाँध लूॅं मात्राओं की डोर में, सहेज लूॅं तुम्हें शब्दों के बीच की ख़ाली जगह में, जैसे औरतें सहेजती हैं अपने सबसे क़ीमती ज़ेवरों को…..
किन्तु मैं जानती हूँ कि, तुम्हें क़ैद कभी रास नहीं आयी… तुम हमेशा से आज़ाद रहे, लाख बन्धनों में रह कर भी आज़ाद रहे तो भला तुम्हें कैसे क़ैद कर सकती हूँ मैं?
एक डर हमेशा मेरे साथ परछाई की तरह चल रहा है कि मैं जल्द ही तुम्हें भूल जाऊँगी, शायद कल, परसों या उसके बाद वाले दिन में, पर चाहती हूँ कि तुम्हें भूलने से पहले तुम्हें आधा-अधूरा ही पूरा बटोर लूँ मैं, रख लूँ पास अपने। मैं चाहती हूँ जिस लम्हें में मैं सौंप दी जाऊँ आग को, उस लम्हें में मेरे साथ मेरी पीठ पर लाद दिया जाए तुम्हारी यादों की पपड़ियों का ढेर और तुम्हारे चेहरे के अक़्स के टूटे-फूटे टुकड़े ताकि उस पूरे सफ़र में वे टुकड़े मेरे जलते हुए पाँव में चुभते रहें और बनते रहें गहरे घाव जिन पर मैं नाख़ूनों से हर रोज़ उकेरा करूँगी तुम्हारा नाम जब तक याददाश्त की सीक्रेट डायरी में तुम दर्ज़ रहोगे किसी गहरे राज़ की तरह, जब दिल-ओ-दिमाग़ से उतर जाएगा तुम्हारा नाम तो वे ही घाव नासूर हो जाएँगे और एक वक़्त के बाद वे सारे घाव ख़ुद-ब-ख़ुद ख़ून फेंकते हुए पुकारेंगे तुम्हारा नाम…. शायद हर बीतते हुए समय के साथ मैं ख़ुदा के नाम की जगह तुम्हारा नाम लेने लगूँ, मैं भूल जाऊँ कि यह दुनिया ख़ुदा के दम व रहम-ओ-करम से चलती है, मैं जपने लगूँ तुम्हारा नाम ठीक वैसे जैसे कोई काफ़िर यह कहते हुए जपता है अपने ख़ुदा का नाम कि उसे ख़ुदा में क़तई यक़ीन नहीं, मैं फिर भी बड़ी बेहयाई से तुमसे ही तुम्हारी हिफ़ाज़त की दुआएँ माँगूँ…. इन सब के अंत में जब रूह भी खोने लगे उस दुनिया में अपना अस्तित्व तो भी तुम मेरे ख़ुदा भी हो जाना, मेरे मालिक, मेरे रहबर भी, मेरे हमसफ़र भी तो मेरी पहचान भी, मेरी ज़िन्दगी भी तो मेरी मौत भी…. हर ज़िन्दगी में, हर सफ़र में।
ख़ैर…. बहुत वक़्त बाद आज आईना देखा तो मैंने तुमको अपने चेहरे पर पाया, आँखों के नीचे के काले गड्ढों में, माथे पर उग आयी लक़ीरों में, मेरे चेहरे के हाव-भाव में… मैंने जाना कि एक वक़्त बाद दो प्रेम करने वाले समरूप हो जाते हैं, क्या तुमको मैं दिखती हूँ तुम्हारे चेहरे के किसी हिस्से में? क्या तुम देख पाते हो मुझे अपनी सपनों से ख़ाली आँखों में? जो बरसों से रोना चाहती हैं पर आँखों ने दे रखी है क़सम आँसुओं को, काश! एक बार वे सारी क़समें तोड़ी जा सकें जिनके बाद रूह को उसका सुकून मिल सके…. मुझे लगता है एक दिन मैं तुम्हें भूल कर ख़ुद को भी भूल जाऊँगी, याद रहेगा तो एक अजनबी चेहरा जो अक्सर आईने में मेरे सामने आ कर खड़ा जाता है, मेरा तो है पर मेरा नहीं है।
‘Meri Smriti Se Tumhara Nirgaman’ Notes by Neha Vats