छुट्टी वाला दिन रागों के नाम होता। कमरे में जगह-जगह रागों के उतार-चढ़ाव बिखरे रहते। मुझे अक्सर लगता अगर हम इन्हीं रागों में बात करते तो दुनिया कितनी सुरीली होती। वह देर तक हँसता मेरी बात पर, यह कह के कि “मेरे सुर तो तुम जानती हो, सुर और राग मुझसे उतनी ही दूर हैं जितनी दूर उत्तरी व दक्षिणी गोलार्द्ध हैं”, जबकि वह सुरों में मुझसे कहीं ज़्यादा अच्छा था, आवाज़ यों मानो दुनिया हार दूँ उस आवाज़ पर। वह मेरी बात पर हँसता और मुझे उसकी ख़ुदको कम आँकने की आदत पर ग़ुस्सा आता, पर उसके साथ होने भर का अहसास ज्यों गुदगुदाता सारा ग़ुस्सा सर्दियों के कोहरे की तरह यकायक ही छँट जाता। रागों की तासीर भी शायद इश्क़ के दरिया सी होती है शायद, जितना डूबो उतना पार लगो। मैं उसकी हथेलियाँ थाम उतर जाना चाहती थी, दूजे किनारे, लेकिन ज़िन्दगी का सफ़ीना जब उलटी राह बहने लगे तो ना जाने कितने दरिया पीछे रह जाते हैं।
यह लिखते हुए बैकग्राउंड में शुभा मुग्दल सितार पर उँगलियाँ तानतीं कर रहीं हैं शिकायतें…..
बालम तेरे झगड़े में रैन गयी, कहाँ गए चन्दा कहाँ गयी प्रीत नयी, रे बालम तेरे झगड़े में….
मुझे अमूमन शिकायत करनी नहीं आती, उसके शब्दों में कहूँ तो “तुम्हें तो शऊर ही नहीं है शिकायत करने का”, जो कि सच भी है, पर ऐसा नहीं कि मुझे शिकवे नहीं होते, पर मैं शिकायतों की अठन्नी-चवन्नी बचपन में ख़रीदे उस पिगी बैग में डाल देती, जिसको देर से मिलने की शिकायत मैं ना जाने कितने दिन तक माँ से करती रही। अहसास दिखाना/जताना भी एक क़िस्म की अदा है, जो शायद मुझे नहीं आती, या मैं बहुत बुरी हूँ उसमें।
इतवार इतना अलसाया हुआ कभी नहीं था मेरा। बीता क्वार भीतर अजीब सा ख़ालीपन भर कर गया है। उम्मीदें अरगनी पर टंगीं सूख कर काठ हो गयी हैं। लोगों से, बातों से एक अजीब सी दूरी बन गयी है। क्वार यूँ बीता जैसे कोई इन्सान बीत जाता है वक़्त सरीख़ा आहिस्ता से, बिना शोर किए।
चिट्ठी का मुझसे अजीब ही रिश्ता है, शायद जो फूलों का ओस से है, या कहानी का प्लॉट से है। ख़ैर बहुत देर तक उन लिली के फूलों को निहारती रही, फिर स्टडी टेबल पर थोड़ी सी जगह बना कर उस गुलदस्ते को रख दिया और चिट्ठी पर जाना-पहचाना नाम पढ़ (या फिर तसल्ली करते हुए) पिछले हफ़्ते ख़रीदी गयी डायरी में रख दिया, बाक़ी चिट्ठियों के साथ, जो साल-दर-साल बीते सालों की दूरी का हिसाब बन बहिखाते की तरह जमा हो रही हैं। पढ़ने की हिम्मत जब भी करती, एक अजीब-सी टीस उठती और सारी हिम्मत रेत के किले की तरह ढह जाती।
रोकना मुझे कभी आया नहीं, हाथों से छूटते लोग शाम को कुछ पल सुस्ताने बैठे किसी कागे की तरह लगते रहे। जाने वालों का रंग अपने जिस्म से छुड़ाने में मज़दूरों की तरह मेहनत करती रही, पर मेहनताने के नाम पर हाथ में वक़्त की खरोंचे ही आयीं।
शाम को ख़ुद को शहर के बीचोंबीच किसी NGO की बनायी गयी लाइब्रेरी में पाया, कितना अजीब है ख़ुद को ज़िन्दगी के चौसर पर मोहरे की तरह ख़ुद ही चाल चलते देखना। जैसे अपनी कहानी किसी और के मुँह से सुनते हुए अपने ही बारे में राय देना। छोटे बच्चों को लाइब्रेरी में पढ़ते हुए देखना कितना सुक़ून मिलता है, यह सुना था लेकिन महसूस करना अलग सुक़ून देता है।
देर रात बालकनी में बैठी मैं सोचती रही कि “हम शिकायतों को खींच-खींच कर इतना बड़ा क्यों कर देते हैं, कि उन चन्द शिकायतों के आगे उल्फ़तों के बसंत की उम्र इतनी छोटी क्यों हो जाती है? ऐन वक़्त पर भीतर उठी शिकायतें होंठों पर जगह क्यों नहीं पाती, बाक़ी ग़ैर-ज़रूरी ख़बरों के बीच किसी ज़रूरी ख़बर की तरह छूट क्यों जाती है? मैंने शिकायतों को अपनी पूरी उम्र जीते देखा है, उन्हें सूख कर चिनार सा झरता नहीं देखा। छोटी-छोटी शिकायतें कब इनसान के ग़ुरूर जितनी बड़ी हो जाती हैं, इनसान को ख़ुद पता नहीं चलता।”
मैंने अलमारी से पुरानी शिकायतों वाली ग़ुल्लक निकाली और उसे घर के पीछे बाबा के हाथों लगाए गये पारिजात के पेड़ नीचे बिलकुल वैसे ही दबा दिया जैसे बच्चे टूटा हुआ दाँत गाड़ देते हैं कि पुराना दाँत परी ले जाएगी और नए सुन्दर दाँत दे जाएगी।
थोड़ी देर उसी शिउली के नीचे बैठी रही, ऐसा लगा जैसे शिउली की महक की एक शॉल मुझ पर पड़ी हुई है। ओस गिरने लगी थी घास पर, हल्की रोशनी में घास चमक रही थी शीशे की तरह। ख़ैर वापस आ कर चाय बनायी और खिड़की के पास बैठ शिउली के पेड़ को देखती रही, जैसे ताकता हो एक अदनी सी उम्मीद की ओर कि एक रोज़ मेरी सारी शिकायतें परी ले जाएगी और बदले में चन्द लम्हें सुकून के दे जाएगी।
उनींदी आँखें लिए ….. Alexa play
प्रेम में तोहरे ऐसी पड़ी मैं, पुराना ज़माना नया हो गया…..ये क्या हो गया।
‘Balam Tere Jhagde Mein Rain Gayi’ Notes by Neha Vats
Ah Pakhi ji