पैंतीस बरस का जंगल

उम्र की रौ बदल गई शायद,
हम से आगे निकल गई शायद।

– वामिक़ जौनपुरी

“इतनी लंबी उम्र क्या अकेले गुज़ारोगी? दुनिया क्या कहेगी?” यही सवाल उसकी खिड़की पर टँगे विंड चाइम की तरह यूँहीं बेवजह आवाज़ करता रहता। वह कान बंद करती तो आँखों के आगे आ खड़ा होता। इस सवाल से उपजे हज़ारों सवालों से बचने के लिए उसने अपना शहर छोड़ा, घर छोड़ दिया और लखनऊ के एक बैडरूम हॉल वाले घर में शिफ़्ट हो गयी। पर सवाल वहीं का वहीं था बस अंतर इतना था कि अब वह सवाल इस शहर में फ़ोन के दूसरी ओर से सुनाई देता। उसका छोटा सा घर सलीके से सजा हुआ था, किताबों की अलमारी में दुनिया भर के नज़रिए, दुनिया भर की आँखें चमक रहीं थी। उन आँखों को देख कर वह खिल उठती जबकि उसको दुनिया की नज़रों से हमेशा ख़ौफ़ आता।

उसके कमरे की दीवार पर सर्त्रे की एक लाइन बड़े बड़े अक्षरों में लिखी थी “यदि आप अपने एकांत में भी अकेला महसूस करते हैं, तो आप गुणहीन संगत में हैं।

If you lonely when you’re alone, you are in bad company

– Jean Paul Sartre

उम्र को उँगली पर गिनते हुए पैंतीस का आँकड़ा पार कर चुकी थी और चेहरे पर पैंतीस के निशान उगने लगे थे। लेकिन उसका ताम्बई रङ्ग तप कर खिल गया था। जानते हो कैसा होता है ताम्बई रङ्ग का खिलना, जैसे शहर के दूसरी छोर पर बरबस उगे जंगल में चुपके से खिलता है कत्थई सा कोई फूल।

इस शहर में उसके जिस्म के साथ चलने वाले बहुत हैं, पर जब एक लंबी उम्र की सड़क अकेले पार की जा चुकी हो तो बहुत देर का साथ छाती में धँसे फाँस की तरह चुभने लगता है। काँधे पर रखा हाथ मन से भी भारी लगता है। उसके बिस्तर के दायीं ओर उसके साथ सपने में खोए हुए उस इंसान को देख वह ख़ुद से सवाल करती कि “अकेले कब तक रहा जा सकता है? बिस्तर पर साथ निभाने वाले के साथ वह पूरी ज़िन्दगी क्यों नहीं निबाह सकती?” शहर, उसका ऑफिस ऐसे मर्दों से भरा पड़ा था जो देर रात उसके अकेलेपन की सरहद में दाख़िल हो उसके सारे ख़्याली किलों को निस्तानबूत करने का माद्दा रखते हैं। पर सवेरा होते ही वह फिर किसी जंगल में खो जाती है…….
रात भर में उसके बिस्तर पर उगी हुई सिलवटें उसे ज़रा नहीं भाती थीं, उसके लगता कोई है जो उसकी नींद में भी उसका पीछा कर रहा है। जिस्म पर उगे हुए रात के निशान वह सुबह धो देना चाहती थी, जैसे बारिश में भीजते हुए पैरों में लगे खीचड़ को धो दिया जाता है। पर कीचड़ों के निशान अक़्सर कपड़ों पर रह ही जाते हैं, तो फिर रात एक अंजान मेह में भीजते हुए रूह पर उग आयी काई को नज़रअंदाज़ कैसे किया जा सकता है? वक़्त-वक़्त पर वह निशान किसी प्रेत से जिंदा हो जाते हैं।

उसकी किताबों वाली अलमारी के सबसे ऊपर वाली शेल्फ में किताबों के बीच एक ऐसी किताब थी जिसमें एक सफ़र बन्द था। 8 साल का लम्बा सफ़र। इस शहर में शिफ़्ट होने के बाद उसने उस किताब को कभी नहीं खोला। उस किताब में एक धुँधली सी तस्वीर थी। जिसमें 22-23 बरस की एक लड़की थी और 26-27 साल का एक लड़का, लड़के के हाथ यही किताब थी… “शिवानी पंत की लिखी कालिंदी” और लड़की के हाथ में  “फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की सारे सुखन हमारे।” अजीब रिश्ता होता है ना इंसानों का यादों से, कभी कभी न उसे याद करते बनता है, न भूलते बनता है…. वे सारी यादें पैरों के निशान की तरह हमारे पीछे-पीछे चलते हैं।

हम कितने सारे सफ़र हम जहाँ-तहाँ रख कर छोड़ देते हैं। कुछ सफ़र बिस्तरों के सिलवटों में अटके रहते हैं। इंसान इश्क़ से कभी ख़ाली नहीं होता लेकिन इश्क़ में किसी के साथ बहने की चाह से ज़रूर ख़ाली ज़रूर हो जाता है। उसे बह जाने से ख़ौफ़ आता है और किनारे उसे डराते हैं अंजान ख़यालों से।
“चिरइया तुम कभी मुझे लिखोगी?”
“तुम्हें लिखने के लिए मुझे तुम्हें बे-लिबास देखना होगा, ऐसे-जैसे तुम ख़ुद के साथ होती हो, जैसे तुम आईने के सामने होती हो, अपने ज़ख़्मों को सहलाते हुए। अपने होने को निहारते हुए। मुझे तुम्हारे भीतर तुम्हें देखना होगा।”
“कैसा होता है बे-लिबास देखना?”
“जैसे माँ देखती है अपने दुधमुँहे बच्चे को, जैसे आशिक़ देखता है अपनी महबूबा को उसका माथा चूमने के बाद उसकी आँखों में तैरती उसकी शक़्ल, जैसे पत्तों के जिस्म को बेलौस छूते हैं बूँदों के प्यासे होंठ।”

देर रात पारिजात की ख़ुशबू आग के फूल बनाती है उसके सीने के बायीं ओर, बारिशों का फूल उसके बालों में खिलता है। मैं यह लिखते हुए उसके जिस्म के उतार-चढ़ाव से गुज़र सकती हूँ, छू सकती हूँ उसकी कहानियों की सदियों को। किताब में क़ैद उसके 8 साल के सफ़र को उस नीली साड़ी की फुलकारियों में महकते देख सकती हूँ। एक रोज़ उसे मुक़म्मल तौर पर उतारूँगी काग़ज़ों पर।

जब मिरे शहर की हर शाम ने देखा उस को,
क्यूँ न फिर मेरे दर-ओ-बाम ने देखा उस को।

– अम्बरीन सलाउद्दीन

‘Paitis Baras Ka Jungle’ Notes by Neha Vats

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