जीवन को इतनी छूट देनी चाहिए।
एक दौड़ती-भागती, बदहवास दुनिया है –
रेल्वे प्लेटफॉर्म
रेल आने पर यहाँ सब कुछ बाढ़ से पूरमपूर
इतनी भागमभाग में
कौन स्थिर बैठ सकता है?
प्लेटफॉर्म का सारा बहाव गुज़र जाने के बाद
नदी तल की चट्टानों की तरह
उभर आती हैं , गार्ड की पेटियाँ
और आश्चर्य की एक दुनिया खुलती है।
उनके चेहरे कितने बेफ़िक्र लगते हैं
कितने यक़ीन से भरी हैं उनकी मुस्कुराहट
जबकि हर किसी की आँखों में संदेह यहाँ
लोग अपना सामान काँख से नीचे उतारते डरते हैं।
जब बैठने की हर जगह भर जाती
वे ख़ुद को कुर्सियों की तरह खोल देती हैं,
चटाइयों की तरह बिछा देती हैं।
मैं सालों तक सोचता रहा कि
वे पड़ी हैं या रखी हैं?
वे कब और कौनसी रेलों में चढ़ जाती हैं?
– किसी ने देखा नही।
उनमे क्या सामान भरा होता है?
अगर कोई उन्हें चुराकर भागने लगे
तो क्या वे उसे ही आवाज़ देंगी
जिसका नाम लिखा है उन पर
क्या वे कभी घर मे भी जाती होंगी?
मैंने एक दिन जिज्ञासावश उन्हें खोलना चाहा
फिर सोचा –
कुछ उत्तर जो हम पा सकते हैं
अगर प्रश्न ही बने रहें
तो हमारी कल्पनाएँ
हमें ज़िंदा रहने में ज़्यादा मदद करती हैं।
मैंने उन्हें थपथपाया
विदा लेते हुए मैंने देखा
सुनसान पड़े प्लेटफॉर्म पर गार्ड की पेटियों को
वे प्रतीक्षा का सबसे सुंदर उदाहरण लग रही थीं।