खाली हाथ? मेरी आँखें अनायास अपने हाथों पर झुक आईं – वे सचमुच खाली थे।
वह अब यहाँ नहीं है – मैंने कहा, – किंतु न जाने क्यों, इस बार मेरे स्वर में पहले जैसी दृढ़ता नहीं थी।
लेकिन तुम तो यहाँ हर रोज आते हो… छोटे लड़के ने कहा – उधर देखो, तुम्हारे बूट के निशान अब भी हैं।
मैं खड़ा हो जाता हूँ – झाड़ी की तरफ बढ़ता हूँ। उसकी आँखें मुझ पर चिपकी हैं। आज तक किसी ने मुझे इतनी आतुर, विह्वल आँखों से नहीं देखा। एक देखना होता है, जिसमें हम बँध जाते हैं, सिमट जाते हैं। उसका देखना ऐसा नहीं था। वह देख रही थी, मुझे धकेलते हुए, जैसे अपने से अलग करते हुए। और मैं ठहर जाता हूँ – अपने को खींचकर रुक जाता हूँ। जिंदगी में जवाबदेही का लमहा एकदम किस तरह आ जाता है, जब हम उसकी बहुत कम प्रतीक्षा कर रहे होते हैं, जैसे वह हमारे लिए न हो, किसी दूसरे के लिए आया हो, दूसरे के लिए नहीं तो तीसरे के लिए, तीसरे के लिए नहीं तो चौथे, पाँचवें, छठे के लिए, चाहे जिसके लिए हो, हमारे लिए नहीं है। लेकिन वह है कि काँपते-चीखते हाथों से हमें पकड़ लेता है – किंतु हम ताकतवर हैं और अपने को छुड़ा लेते हैं और सोचते हैं, यह एक दुःस्वप्न है, जो अभी बीत जाएगा और आँखें खोलकर वही देख लेंगे, जो देखना चाहते हैं, जिसके हम आदी हैं, और फिर हम जवाबदेह नहीं रहेंगे, किसी के भी नहीं, किसी के प्रति भी नहीं…
